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जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाक
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महावीर वाणी द्वादशांगी अंशत: विद्यमान रह कर गव्यों का उद्धार करते
रहेंगे।
तित्भोगाली में अनुक्रम से यह विवरण दिया हुआ है कि किस-किस अंग का किस-किस समय में विच्छेद होगा। * श्रुतविच्छेद के संबंध में दो प्रकार के अभिमत रहे हैं. इस प्रकार का आभास नन्दीसूत्र की चूर्णि से स्पष्टतः प्रकट होता है। नन्दीसून थेरावली की ३२ वीं गाथा की व्याख्या में नन्दी चूर्णिकार ने इन दोनों प्रकार के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है- " बारह वर्षीय भीषण दुष्काल के समय आहार हेतु इधर-उधर भ्रमण करते रहने के फलस्वरूप अध्ययन एवं पुनरावर्तन आदि के अभाव में श्रुतशास्त्र का ज्ञान नष्ट हो गया । पुनः सुभिक्ष होने पर स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में श्रमण संघ ने एकत्रित हो, जिस-जिस साधु को आगमों का जो जो अंश स्मरण था, उसे सुन-सुन कर सम्पूर्ण कालिक श्रुत को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित किया। वह वाचना मथुरा नगरी में हुई इसलिए उसे माधुरी वाचना और स्कन्दिलाचार्य सम्मत थी अतः स्कंदिलीय अनुयोग के नाम से पुकारी जाती है। दूसरे (आचार्य) कहते हैं- सूत्र नष्ट नहीं हुए, उस दुर्भिक्षकाल में जो प्रधान -- प्रधान अनुयोगधर (श्रुतधर) थे, उनका निधन हो गया। एक स्कन्दिलाचार्य बचे रहे। उन्होंने मथुरा में साधुओं को पुनः शास्त्रों की वाचनाशिक्षा दी, अतः उसे माधुरी वाचना और स्कन्दिलीय अनुयोग कहा जाता है।
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नन्दीचूर्णि में जो उक्त दो अभिमतों का उल्लेख किया गया है, उन दोनों प्रकार की मान्यताओं को यदि वास्तविकता की कसौटी पर कसा जाय तो वस्तुतः पहली मान्यता ही तथ्यपूर्ण और उचित ठहरती है। "सूत्र नष्ट नहीं हुए" इस प्रकार की जो दूसरी मान्यता अभिव्यक्त की गई है वह तथ्यों पर आधारित प्रतीत नहीं होती । द्वादशांगी की प्रारम्भिक अवस्था के पद-परिमाण और वर्तमान में उपलब्ध इसके पाठ की तालिका इसका पर्याप्त पुष्ट प्रमाण है। इस संबंध में विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध द्वादशांगी का पाठ वल्लभी में हुई अन्तिम वाचना में देवर्द्धि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों द्वारा वीर निर्वाण सं. 980 में निर्धारित किया गया था। इस अन्तिम आगम वाचना से १५३ वर्ष पूर्व वीर नि.सं. ८२७ में, लगभग एक ही समय में दो विभिन्न स्थानों पर दो आगम वाचनाएँ, पहली आगम वाचना आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में और दूसरी आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में, वल्लभी में हो चुकी थीं। उपरिवर्णित द्वितीय मान्यता के अनुसार द्वादशांगी का मूलस्वरूप ८२७ वर्षों तक यथावत् बना रहा हो और केवल १५३ वर्षों की अवधि में ही इतने स्वल्प परिमाण में अवशिष्ट रह गया हो, यह विचार करने पर स्वीकार करने योग्य प्रतीत नहीं होता।
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