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प्रश्न
उत्तर
प्रश्न
उत्तर
प्रतिक्रमण के
प्रश्नोत्तर
गूट
श्री गौतमचन्द जैन
प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है?
प्रतिक्रमण साधकजीवन की एक अपूर्वकला है तथा जैन साधना का प्राणतत्त्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं, जिसमें प्रमादवश दोष न लग सके। उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये । प्रतिक्रमण में साधक अपने जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन, निरीक्षण करते हुए इन दोषों से निवृत्त होकर हल्का बनता है ।
प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, क्योंकि तन का रोग अधिक से अधिक एक जन्म तक ही पीड़ा दे सकता है, किन्तु मन का रोग एक बार प्रारम्भ होने के बाद, यदि व्यक्ति असावधान रहा तो हजारों ही नहीं, लाखों जन्मों तक परेशान करता है।
प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ स्पष्ट कर उसके आठ पर्यायवाची बताइए ।
प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है- पीछे लौटना, अर्थात् साधक जिस क्रिया द्वारा अतीत में प्रमादवश किए हुए दोषों, अपराधों एवं पापों का प्रक्षालन करके शुद्ध होता है, वह प्रतिक्रमण कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्रानुसार- सावद्यप्रवृत्ति में जितने आगे बढ़ गए थे उतने ही पीछे हटकर एवं शुभयोग रूप स्वस्थान में अपने आपको लौटा लाना प्रतिक्रमण है।
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15.17 नवम्बर 2006
जिनवाणी,
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श्रुतकेवली भद्रबाहु का मन्तव्य है कि प्रतिक्रमण केवल अतीत में लगे दोषों की ही विशुद्धि नहीं करता, अपितु वह वर्तमान और भविष्यकाल के दोषों की विशुद्धि भी करता है। आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची नाम बताए हैं
१. प्रतिक्रमण - सावद्य योग से विरत होकर आत्मशुद्धि में लौट आना ।
२. प्रतिचरणा- अहिंसा, सत्य आदि संयम में सम्यक् रूप से विचरना ।
३. परिहरणा - सभी प्रकार के अशुभ योगों का परित्याग करना ।
४. वारणा - विषय भोगों से स्वयं को रोकना ।
५. निवृत्ति - अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना ।
६. निंदा - पूर्वकृत अशुभ आचरण के लिए पश्चात्ताप करना ।
७. गर्हा - आचार्य, गुरु आदि के समक्ष अपने अपराधों की निंदा करना ।
८. शुद्धि- कृत दोषों की आलोचना, निंदा, गर्हा तथा तपश्चरण द्वारा आत्मशुद्धि करना ।
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