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________________ ||15,17 नवम्बर 2006 । जिनवाणी चारित्र की आराधना करने से कर्मों की निर्जरा होती है। अपूर्वकरण कर क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष का अव्याबाध सुख मिलता है। प्रत्याख्यान का अधिकारी वही साधक है जो विक्षिप्त और अविनीत न हो। आवश्यकनियुक्ति में श्रमण जीवन को तेजस्वी-वर्चस्वी बनाने वाले जितने भी नियमोपनियम हैं, उन सबकी चर्चा विस्तार से की गई है। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन भी इस नियुक्ति में हुआ है। प्रस्तुत नियुक्ति के रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं। विशेषावश्यक भाष्य नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिये विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गईं, वे भाष्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। भाष्य में अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं। मुख्य छन्द आर्या है! भाष्य साहित्य में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियों, लौकिक कथाओं और परम्परागत श्रमणों के आचार-विचार की विधियों का प्रतिपादन है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का नाम जैन इतिहास में गौरव के साथ उटंकित है। आवश्यकसूत्र पर उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की। आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं- १. मूलभाष्य २. भाष्य और ३. विशेषावश्यकभाष्य। पहले के दो भाष्य बहुत ही संक्षेप में लिखे गये हैं। उनकी बहुत सी गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में मिल गई हैं। इसलिये विशेषावश्यकभाष्य दोनों भाष्यों का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह भाष्य केवल प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। प्रस्तुत भाष्य में जैनागमसाहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय हैं, प्रायः उन सभी पर चिन्तन किया गया है। ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद पर विशद सामग्री का आकलन-संकलन है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की तुलना अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ की गई है। इसमें जैन आगमसाहित्य की मान्यताओं का तार्किक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। आगम के गहन रहस्यों को समझने के लिए यह भाष्य बहुत ही उपयोगी है और इसी भाष्य का अनुसरण परवर्ती विज्ञों ने किया है। आवश्यक पर नाम आदि निक्षेपों से चिन्तन किया गया है। द्रव्य-आवश्यक, आगम और नोआगम रूप दो प्रकार का है। अधिकाक्षर पाठ के लिये राजपुत्र कुणाल का उदाहरण दिया है। हीनाक्षर पाठ के लिये विद्याधर का उदाहरण दिया है। उभय के लिये बाल का उदाहरण दिया है और आतुर के लिये अतिमात्रा में भोजन और भेषज विपर्यय के उदाहरण दिये हैं। लोकोत्तर नोआगम रूप द्रव्यावश्यक के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये साध्वाभास का दृष्टान्त देकर समझाया है। भाव-आवश्यक भी आगम रूप और नोआगम रूप से दो प्रकार का है। आवश्यक के अर्थ का जो उपयोग रूप परिणाम है वह आगम रूप भाव-आवश्यक है। ज्ञान-क्रिया उभय रूप जो परिणाम हैं, वह नोआगम रूप भाव-आवश्यक है। षडावश्यक के पर्याय और उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229786
Book TitleAavashyak Sutra par Vyakhya Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherZ_Jinavani_002748.pdf
Publication Year2006
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size95 KB
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