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________________ 2291 ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी अहिंसादि तथा उत्तरगुण छठे से १२वें व्रत तक के प्रत्याख्यान- इन दोनों से दोषों का निरोध होकर जीवन शुद्धि की ओर अग्रसर होता है। उपर्युक्त प्रत्याख्यानों से साधक के जीवन में अतिचारों/आस्रवों में कमी होकर शुभयोगों एवं आत्मस्वभाव या आत्मगुणों में उनके कदम आगे बढ़ते हैं ! आत्मशुद्धि के उपक्रम में पुष्टि और तीव्रता आती है। मोक्षमार्ग अधिक प्रशस्त बनता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान भविष्यकालीन पापों से हमें बचाता, अतिचारों को कम करता और शुभयोगों में स्थित रहने में पुष्टता प्रदान करता है। मोक्ष-प्राप्ति में दोनों का सहसम्बन्ध प्रतिक्रमण आस्रवद्वारों का निरोध करने के कारण संवररूप माना गया है। प्रतिक्रमण इस प्रकार नवीन कर्मों के बंध से आत्मा को बचाता है। इसके साथ प्रत्याख्यान भी आस्रवों को रोकता है। उत्तराध्ययन सूत्र (२९/१२-१३) में कहा गया है - १. पडिक्कमणेणं वयछिदाई पिहेइ, पिहियवयछिदे पुण जीवे निरुद्धासवे। २. पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुम्भइ। अर्थात् प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान दोनों आस्रवद्वार के पाप मार्गों को रोककर आत्मा को संवरमय बनाते हैं। संवर निर्जरा का हेतु भी है, क्योंकि मन, वचन, काया, पाँच इन्द्रियों आदि पर नियंत्रण निर्जरा का कारण भी है। इस प्रकार संवर-निर्जरा दोनों की सम्पन्नता से आत्मा मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होती है। मोक्षसिद्धि में दोनों का योग प्रतिक्रमण संवररूप है और प्रत्याख्यान तप निर्जरा रूप। दशवैकालिक वृत्ति में आचार्य जिनदास ने बताया- 'इच्छानिरोधस्तपः'। प्रत्याख्यान में साधक इच्छाओं का निरोध करता है, जिससे तप की साधना करता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण से संवर (नवीन कार्यो पर रोक) और प्रत्याख्यान रूप तप से पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करते हुए साधक मोक्ष सिद्धि करता है। इस तरह प्रतिक्रमण एवं प्रत्याख्यान दोनों का मोक्षसिद्धि में योग है। उत्तराध्ययन (३०/५-६) में तालाब का उदाहरण देकर बताया गया है कि जैसे तालाब को खाली करने के लिए पानी आने का मार्ग बन्द करना तथा बाद में एकत्रित पानी को निकालना आवश्यक है इसी प्रकार कर्मरूप एकत्र जल के लिए भी संवर और निर्जरा द्वारा क्रमशः पापकर्मों को रोकना और पूर्व कर्मो को क्षय करना आवश्यक है। प्रत्याख्यान की प्रतिक्रमण से सार्थकता प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण करने से ही सार्थक बनते हैं। प्रतिक्रमण करते हुए साधक यह चिंतन करता है कि उसके प्रत्याख्यानों में कहीं दोष तो नहीं लगा। अतिक्रमण या ग्रहीत मर्यादा का उल्लंघन तो नहीं हुआ। इस प्रकार चिन्तन करने से प्रत्याख्यान का सम्यक् परिपालन संभव है, अन्यथा नहीं। कह सकते हैं कि प्रतिक्रमण की क्रिया प्रत्याख्यानों की समीक्षा है। अतिक्रमण यदि हुआ तो उससे पुनः व्रत में स्थित होने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229776
Book TitlePratikraman aur Pratyakhyan Parasparik Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Karnavat
PublisherZ_Jinavani_002748.pdf
Publication Year2006
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size74 KB
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