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115.17 नवम्बर 2006
जिनवाणी सामायिक चारित्र कहा है । पाठ का भावार्थ है- "हे भगवन्! मैं पापकारी सावद्य प्रवृत्तियों को त्यागकर सामायिक (समत्व) ग्रहण करता हूँ। मैं मन, वचन, और शरीर से पाप कर्म न स्वयं करूँगा, न दूसरों से कराऊँगा और न पाप कर्म करते हुए को भला मानूँगा। हे भगवन्! मैं पाप कर्मों का प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ, त्याग करता हूँ और अपने को पापकारी क्रियाओं से अलग (असंग) करता हूँ ।
प्रतिक्रमण द्वारा पापों से मुँह मोड़े (विमुख हुए) बिना कायोत्सर्ग साधना संभव नहीं है। अतः इसके लिए प्रतिक्रमण सूत्र का विधान है, जिसका भावार्थ है
:
मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। मैंने दिन में जो कायिक, वाचिक तथा मानसिक अतिचार (दोष) किए हों, जो सूत्र से, मार्ग से, आचार से विरुद्ध है, नहीं करने योग्य है, दुर्ध्यान रूप है, अनिष्ट व अनाचरणीय है, साधु के लिये अनुचित है, इन अतिचारों से तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महाव्रत, छह जीव निकायों की रक्षा, सात पिण्डैषणा, आठ प्रवचन माता, नौ ब्रह्मचर्य, दशविध श्रमण धर्म संबंधी कर्त्तव्य, यदि ग्खण्डित हुए हों अथवा विराधित हुए हों तो वे सब पाप मेरे लिए मिथ्या अर्थात् निष्फल
हों
इसके पश्चात् कायोत्सर्ग के विधान का सूत्र पाठ है. जिसका पाठ निम्न प्रकार है, यथातस्सउत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहिकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्धायणठाए ठामि काउस्सगं... तावकार्यं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ।
"आत्मा की उत्कृष्टता श्रेष्ठता के लिये, दोषों के प्रायश्चित्त के लिये विशेष शुद्धि करने के लिये, शल्य रहित होने के लिए, पाप कर्मो का पूर्णतया विनाश करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास, खाँसी, छींक, जंभाई, डकार, अपानवायु. चक्कर. पित्त की मूर्च्छा, अंग, कफ व दृष्टि के सूक्ष्म संचार से. अर्थात् शारीरिक क्रियाओं के अशक्य परिहार के अतिरिक्त काया के व्यापारों से निश्चल व स्थिर रहकर, वाणी से मौन रहकर, मन से ध्यानस्थ होकर अपने को शरीर से परे करता हूँ। यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ आत्मा का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का विसर्जन करना है, क्योंकि विसर्जन व परित्याग आत्मा का नहीं, अपनेपन के भाव अर्थात् ममत्व बुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है तभी ध्यान की सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोग दशा अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का अन्यतम कारण है।” आगार सूत्र ( श्रमणसूत्रअमरमुनि), पृष्ठ ३७६
देह, शरीर एवं तन काया के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वर्तमान में काया के स्थान पर देह तथा शरीर शब्द का अधिक प्रयोग होता है। इस दृष्टि से 'कायोत्सर्ग' का अर्थ हुआ देह का उत्सर्ग, शरीर का उत्सर्ग । जीव का सबसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध देह (काया) से है । इन्द्रिय, मन, बुद्धि देह के ही अंग हैं। देह
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