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15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी,
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षडावश्यकों के क्रम का औचित्य
श्री पारसमल चण्डालिया
कार्य-कारण भाव के नियम पर आधारित षडावश्यक का क्रम पूर्णतः वैज्ञानिक है । षडावश्यक के स्वरूप और फल की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत लेख में करते हुए इनके क्रम पर भी समीचीन प्रकाश डाला गया है। आत्मशुद्धिकारक प्रतिक्रमण श्रावक और श्रमण दोनों के लिए अत्यावश्यक है। -सम्पादक
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प्रतिक्रमण में षडावश्यक का जो क्रम रखा गया है, वह कार्य-कारण भाव की शृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। साधक के लिए सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। बिना समता को अपनाए सद्गुणों के सरस सुमन खिलते नहीं और अवगुणों के काँटे झड़ते नहीं । जब अंतर्हृदय में विषम भाव की ज्वालाएँ धधक रही हों तब वीतरागी महापुरुषों के गुणों का उत्कीर्त्तन किस प्रकार किया जा सकता है ? समत्व को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति ही महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन करता है और उनके उदात्त गुणों को जीवन में उतारता है। इसीलिए सामायिक आवश्यक के बाद चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है। जब गुणों को व्यक्ति हृदय में धारण करता है तभी उसका सिर महापुरुषों के चरणों में झुकता है। भक्तिभावना से विभोर होकर वह उन्हें वंदन करता है, इसीलिए तृतीय आवश्यक 'वंदन' है। वंदन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना करता है, अतः वंदन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है । भूलों को स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिए तन एवं मन में स्थिरता आवश्यक है। कायोत्सर्ग से तन एवं मन की एकाग्रता की जाती है और स्थिरवृत्ति का अभ्यास किया जाता है । जब तन और मन स्थिर होता है तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। मन डांवाडोल हो तब प्रत्याख्यान संभव नहीं है इसीलिए प्रत्याख्यान आवश्यक का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक रूप प्रतिक्रमण आत्म-निरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है। षडावश्यक स्वरूप, फल और क्रम औचित्य
आत्मा को निर्मल अर्थात् कर्म - मल रहित बनाने के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। इसीलिए प्रतिक्रमण को 'आवश्यक' जैसा सार्थक नाम दिया गया है। पाप- -निवृत्ति रूप प्रतिक्रमण के छह आवश्यक हैं। इन छह आवश्यकों के क्रम के औचित्य के साथ विस्तृत स्वरूप इस प्रकार है -
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१. प्रथम आवश्यक सामायिक - छह आवश्यकों में सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान दिया गया है।
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