________________ | 15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी कायोत्सर्ग रूप औषध के प्रयोग से आध्यात्मिक व्रण या दोष का निराकरण किया जाता है। अतः इसे व्रणचिकित्सा कहते हैं। कायोत्सर्ग वह औषध है, वह मरहम है जो आत्मिक घावों को साफ कर देता है और संयम रूपी शरीर को अक्षत बनाकर परिपुष्ट करता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, जो संयमी-जीवन को शुद्ध-विशुद्ध-परिशुद्ध बनाता है। __'आवश्यक सूत्र' के उत्तरीकरणेणं सूत्र में यही कहा गया है- 'तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निम्घायणट्टाए ठामि काउस्सग्गं / / अर्थात् संयमी-जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशुद्ध करने के लिए, आत्मा को शल्य रहित बनाने के लिए, पाप कर्मो के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ।" इस प्रकार संयम-साधना में कायोत्सर्ग करके शरीर पर ममत्व एवं रागभाव का त्याग करके अतिचारजन्य भाव व्रण (घाव-दोष) की प्रायश्चित्त रूप चिकित्सा करने के कारण ‘कायोत्सर्ग आवश्यक' को 'व्रण चिकित्सा' कहा गया है। 6. गुणधारणा- प्रत्याख्यान आवश्यक मूल और उत्तरगुणों को निरतिचार धारण करने रूप होने से गुणधारणा प्रायश्चित्त से आत्मशोधन द्वारा दोषों का सम्मान करके आत्मा के मूल और उत्तरगुणों को अतिचार रहित-निर्दोष धारण-पालन करना गुणधारणा है, जो प्रत्याख्यान द्वारा समायोजित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि छह ही आवश्यक सामायिकादि के क्रमशः सावद्ययोग विरति आदि पर्याय शब्द अर्थ एवं भाव की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि अनुयोगद्वार सूत्र में वर्णित षडावश्यक के पर्याय नाम गुणनिष्पन्न एवं सार्थक हैं। -आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, व्यावर (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org