________________
संख्या, सादृश्य, शक्ति और समवाय ये आठ पदार्थ प्रभाकर द्वारा स्वीकृत है ।" कुमारिलभट्ट, द्रव्यों के अन्तर्गत पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन, तम, शब्द इनका समावेश करते हैं। प्रभाकर मिश्र तम और शब्द को छोडकर नौ द्रव्यों को मानते हैं । १२
जैनदर्शन में सात तत्त्व (नव तत्त्व) प्रसिद्ध हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष कई अभ्यासकों ने इन्हें नैतिक तत्त्व माना है। जैनदर्शन में वास्तविक तत्त्वों को द्रव्य कहते हैं। षड़द्रव्यों कीगिनती इस प्रकार दी जाती है- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय | 'सत्' या 'अस्तित्व' द्रव्य का लक्षण है। हरेक द्रव्य गुण और पर्यायों से युक्त है । द्रव्य नित्य हैं और पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है।
६
जैन और जैमिनीय दोनों में तत्त्व, द्रव्य, पदार्थ, गुण, कर्म आदि का विवेचन भिन्न-भिन्न तरीके से पाया जाता है । दोनों ने अपनी-अपनी तत्त्वमीमांसा को गृहीतक के रूप में स्वीकृत किया है । उनकी सत्यासत्यता एक-दूसरे के परिप्रेक्ष्य में स्वीकारना या नकारना यह अनुसन्धान एक स्वतन्त्र विषय है । तथापि यह बात मननीय है कि दोनों ने अपने-अपने द्रव्यों की सत्ता को नित्य माना है । अतएव दोनों दर्शनों को हम 'वास्तववादी यानेrealist' मान सकते हैं । जीव-अजीव दोनों को स्वतन्त्र रूप से मानने के कारण एक दृष्टि से जैन और जैमिनीय इन दोनों को हम 'द्वैतवादी याने dualist' भी कह सकते हैं। दोनों ने हर जीव की (आत्मा की ) स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के कारण दोनों को हम ‘अनेकजीववादी याने pluralist' भी कह सकते हैं ।
(८) प्रमाणमीमांसा :
कुमारिलभट्ट छह प्रमाणों को स्वीकारते हैं जैसे कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि । प्रभाकरमिश्र अनुपलब्धि छोडकर पाँच प्रमाणों को मानते हैं । १७
जैन प्रमाणविचार आगमयुग, खण्डन-मण्डन-युग और न्याययुग इन तीनों में विभक्त है। जैन नैयायिकों ने न्याययुग में स्याद्वाद और सप्तभंगी के आधार से अभिनव विवेचन पद्धति अपनायी है। सामान्यतः हम यह कह सकते हैं कि जैन नैयायिकों को चार प्रमाण मान्य हैं प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ।
-
हम कह सकते हैं कि मीमांसकों को अर्थापत्ति और अनुपलब्धि इन दोनों प्रमाणों की स्वतन्त्र रूप से स्वीकृति अनिवार्यता से करनी पडी। क्योंकि वेदवाक्यों का विरोध दूर करने के लिए तथा ज्ञानपरक वाक्यों का अर्थकर्मपरक बताने के लिए ये दोनों प्रमाण बहुत ही उपयुक्त थे । इसके अलावा 'अर्थवाद' का तन्त्र भी उन्होंने खूब अपनाया । मीमांसकों के अनुसार ज्ञान 'स्वतः प्रमाण' होता है । विशेषत: वेद स्वत: प्रमाण हैं । जैन गृहीतकों के अनुसारज्ञान हमेशा स्व पर प्रकाशक होता है।
I
-
-
(९) शब्दप्रामाण्य का स्थान
जैन और जैमिनीय दोनों ने अपने-अपने मूलाधार ग्रन्थ तय किये । जैमिनीय ने 'वेद', 'ब्राह्मण' एवं 'कल्पसूत्र' इन तीनों को शब्दप्रमाण के रूप में स्वीकारा। जैनियों ने वीतराग सर्वज्ञों के उपदेशों के संकलन को 'आगम' कहा । उनको प्रमाण रूप में स्वीकारा । यद्यपि श्वेताम्बर - दिगम्बरों में आगमप्रमाण्यसम्बन्धी मतभेद है तथापि दोनों ने प्राकृत भाषा में निबद्ध अपने-अपने प्राचीन ग्रन्थों को आगमप्रमाण (शब्दप्रमाण) के रूप में स्वीकृत किया है।
|
मीमांसा के अनुसार वेदों के शब्द ऋषियों ने देखे याने उनका साक्षात्कार किया। फिर उन्होंने उन सूक्तों की मुख से उच्चारणा की । शब्दों का उच्चारण, शुद्धि, अशुद्धि इ. को मीमांसकों के शब्दप्रामाण्य में सर्वाधिक महत्त्व
है | ‘शब्द-नित्यत्व' और 'शब्द - शुद्धत्व' की अवधारणा, मीमांसा में एक प्रबल गृहीतक है ।
I
जैन मत के अनुसार तीर्थंकरों के उपदेश गणधरों ने अर्थरूप से संग्रहित और शब्दबद्ध किये । तीर्थंकरों के उपदेश लोकभाषा में होने के कारण शाब्दिक शुद्धता, नित्यता, उच्चारण हमेशा गौण स्थान पर रही। सार, भावार्थ