________________
मार्च २०१०
१२९
भाषा और शैली - इसकी भाषा संस्कृत ही है। यत्र तत्र वैदिक संस्कृत के भी शब्दों के दर्शन होते हैं । इस ग्रन्थ की प्राचीनता प्रमाणित करने हेतु रचनाकार ने इसकी शैली उपनिषद् की शैली रखी है, जैसे- “अथातः संप्रपद्येम, पूर्व ह वा तैः, इति श्रुतेः, ये च ह वा, स शिखा सूत्रवता, न तस्मिन् धर्मे स्वाधिकारिणो धर्मद्रुहः, न द्वेषकद्विट्, सकलं भद्रमश्नुते जायेव पत्युः' आदि । निष्कर्ष१. इस ऋषभ वाणी में सर्वत्र यही उल्लेख प्राप्त होता है कि भगवान् ऋषभ
ने ऐसा कहा है। यहाँ इस ऋषभवाणी में कोई नया दार्शनिक चिन्तन या कोई विशिष्ट बात का अंकन नहीं है, जो है सो वह भगवान् महावीर की परम्परा में प्रतिपादित और पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित देव-गुरु-धर्म तत्त्व का ही विवेचन है। हाँ, यहाँ यह वैशिष्ट्य अवश्य प्राप्त होता है कि तत्त्वों में देव के स्थान पर प्रथम गुरुतत्त्व का विवेचन है । गुरुतत्त्व में सद्गुरु लक्षण, देवतत्त्व में वीतराग देव का लक्षण और प्रतिमा पूजन एवं धर्म तत्त्व में नवतत्त्व, अणुव्रत, महाव्रत और गुणस्थान का विवेचन है। श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशा सूत्र और गुणस्थानों का वर्णन कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों से विवेचित है। पंचम अध्याय में जो भगवान् के श्रीमुख से भविष्यवाणी ही करवा दी है, जिसमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर, पंचम आरक और उसका स्वरूप, आगामी उत्सर्पिणी में पद्मनाभ तीर्थंकर, जम्बू के पश्चात् मोक्षद्वार बन्द, २००४ युगप्रधान, अन्तिम आचार्य दुप्पसह, चान्द्रकुल और आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों का पृथक्करण आदि का उल्लेख भी हो गया है। यह समग्र वर्णन तीर्थोद्गालिकप्रकीर्णक एवं व्यवच्छेदगण्डिका
में प्राप्त होता है। २. इस ग्रन्थ में लेखक के नाम का कहीं भी उल्लेख न होने पर भी 'निगम'
शब्द से हमने लेखक का नाम इन्द्रनन्दिसूरि की सम्भावना की है । लेखक ने नामोल्लेख न कर, इसे अथर्व का उपनिषद् कहकर, उपनिषद् शैली के अनुकरण पर रचना की है । स्थान-स्थान पर श्रुति का उल्लेख कर और महावीर शासन के सुधर्मस्वामी, जम्बूस्वामी और आर्यरक्षितसूरि को छोड़कर किसी भी प्रभावक युगप्रधान आचार्य का नामोल्लेख न कर इसे प्राचीनतम -