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अनुसन्धान ५० (२)
आर्षभी विद्या
विभु आदिनाथ प्ररूपित सिद्धान्तों के सम्बन्ध में एक हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त होता है, जिसका नाम है 'आर्षभी विद्या' । ग्रन्थकार ने इसका पूर्ण नाम दिया है 'अथर्वोपनिषत्सु विद्यातत्त्वे भारतीयोपदेशे' । इसके प्रथम अध्ययन सूत्र संख्या ४ में 'आर्षभाऽऽर्हती विद्यां' दिया है। आर्षभी अर्थात् ऋषभ की विद्या/ देशना होने से यह नाम उपयुक्त भी है । लेखक ने इसे अथर्व का उपनिषत् लिखा है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि अर्वाचीन समस्त उपनिषत् अथर्व के अन्तर्गत ही आते हैं। ऋषभ भागवत परम्परा मान्य आठवें अवतार होने से उनकी तत्त्वमयी विद्या/उपदेश समस्त भारतीयों के लिए ग्राह्य/उपादेय हो इस दृष्टि से उपयुक्त ही है । किसी परम्परा का नाम न लेकर केवल 'भारतीय' शब्द का प्रयोग भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थकार
इसके प्रणेता कौन हैं ? इसका इस ग्रन्थ में कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु इसके पंचमाध्याय के सूत्रांक एक में 'अथातो निगमस्थिति-सिद्धान्त-सिद्धोपमानां धर्मपथसार्थवाहानां युगप्रधानानां चरित्रकौशल्यं वर्णयामः' कहा है। इसमें उल्लिखित 'निगम' शब्द से कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में तपागच्छ में आचार्य इन्द्रनन्दिसूरि हुए हैं। विचारभेद के कारण इनसे निगम सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ । इसलिए इन्हें 'निगमाविर्भावक' विशेषण से सम्बोधित भी किया गया है। इन्द्रनन्दिसूरि श्रीलक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य थे। लक्ष्मीसागरसूरि का जन्म १४६४, दीक्षा १४७७, आचार्यपद १५०८ और गच्छनायक १५१७ में बने थे । अतः इन्द्रनन्दि का समय भी १६वीं शती के दो चरण अर्थात् १५०१ से १५५० के लगभग मान सकते हैं । यदि यह ग्रन्थ इन्हीं का माना जाय तो इस ग्रन्थ का रचना-काल भी १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध ही है । इनके इस प्रकार के कई ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं :
१. भव्यजनभयापहार २. पंचज्ञानवेदनोपनिषद् ३. भारतीयोपदेश ४. विद्यातत्त्व ५. निगम-स्तव ६. वेदान्त-स्तव ७. निगमागम