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प्रचलित अथवा बीजी रीते कहीए तो भ महावीरनां उपदेशोने शब्दबन्ध तेमना गणधरोए आवा जातजातना प्रयोगो एक साथे एक ज ग्रंथमां कर्या हशे ?
आधुनिक भाषाशास्त्रना औतिहासिक अने तुलनात्मक अध्यनना आधारे पुरवारय करी शकाय के मध्यम भारतीय आर्य भाषा भूमिकाना विविध स्तरो अने क्षेत्रोमां प्रचलित आ विविध रूपो छे. जैन धर्मनो प्रचार पूर्व भारतमांथी उत्तरभारत (मथुरा) अने पछी पश्चिम (गुजरात राजस्थान ) मां जेम जेम थतो गयो तेम तेम लोकभाषानो प्रभाव गुरु-शिष्य परंपराए मौखिक रूपे जळवायेला आगमशास्त्र उपर वधतो गयो अने छेक पांचमी सदीनी महाराष्ट्री प्राकृतभाषानो रंग ए प्राचीन प्राकृतने अंतिमवाचना - प्रमुख देवर्धिगणिना काळ सुधी लागतो गयो. परिणामे आजे जैन अर्धमागधी आगम ग्रंथोमां महाराष्ट्री प्राकृतनो वधारे प्रभाव जोवा मळे छे. एटले ज तो आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजीने पण कहेवुं पड्युं के आगमोनी भाषा खीचडी थई गई छे. अने जैन आगमोना सुज्ञात अध्येता पं. श्री बेचरभाईनी दृष्टिए पण आगमोमां अत्यारे भाषानुं जे स्वरूप मळे छे मूळ स्वरूप नथी. काळक्रम तेमज स्थाळांतर आ बन्नेना कारणे लहियाओ अने उपदेशकोनी उपर ते वखतनी चालु बोलचालनी भाषामां घेरी असर पडेली जणाय छे. छतां हस्तप्रतोमां जळवायेला केटलाक पाठो उपरथी कोईपण भाषाविदने जणाई आवशे के क्युं रूप प्राचीन छे अने क्युं रूप पछीना काळनुं छे.
अत्यार सुधी आगमोनुं जे सम्पादन थयुं छे. तेमां (१) जे जे पाठ पाचीन ताडपत्रीय प्रतोमां मळतो होय अने (२) जे अधिक प्रतोमां मळतो होय अने (३) जे टीकाकार-सम्मत होय ते पाठ लेवानो आग्रह रह्यो छे. पण एमां भाषिक दृष्टिनो बिलकुल अभाव जणाय छे. आ ग्रंथमां में प्रस्तुत करेली सामग्री परथी जणाई आवशे. के कागळनी 'जे' संज्ञक प्रतमां प्राचीन पाठ मळे छे. ज्यारे 'सं' संज्ञक प्राचीनतम ताडपत्री प्रतिमां अनेक स्थल अवाचीन पाठो मळे छे. कोई पण प्रतमां (ताडपत्र के कागळनी) एक ज शब्दनां एक सरखा रूप मळतां ज नथी तेथी जणाई आवे छे के हस्तप्रतोनी नकलो करती वखते स्वच्छंदता प्रवर्ती छे अने मूळ भाषानां साचा स्वरूपनो पछीना लहियाओने ख्याल होय पण क्यांथी ? अर्धमागधी भाषानां मौलिक लक्षणो शुं छे ए विषेनो कोई व्याकरण ग्रंथ ज न मळतो होय अथवा तो कोई पण जग्याए एना विषेनी विशद चर्चा ज न थयी होय तो संपादको पण शुं करी शके,
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