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________________ मार्च २०१० ११७ I ही करना पडता है, दूसरों द्वारा नहीं करवाया जा सकता । हिन्दुओं में व्रत वैयक्तिक तथा सामूहिक दोनों पाये जाते हैं । जैनों में वैयक्तिक व्रतों की प्रधानता है लेकिन उपधानतप, पौषधोपवास आदि बहुत ही कम व्रत सामूहिक रूप में करने की प्रथा है । ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि भेद न रखके सभी वर्गों के तथा जाति के लोगों को केन्द्रस्थान में रखकर हिन्दु व्रत सामान्यतः बनाये गये हैं। तथापि कुछ ग्रन्थों में पिछले दरवाजे से जातिभेद प्रविष्ट हुआ दिखायी देता है । कहा है कि विशिष्ट व्रत में ब्राह्मण और क्षत्रिय एक दिन का उपवास रखे और उसी व्रत में वैश्य तथा शूद्र लगातार दो दिनों का उपवास रखे। जैन परम्परा में प्राय: इसतरह के भेदभाव दिखायी नहीं देते तथापि अपवाद स्वरूप उदाहरण पाये जाते हैं । इस भेदभाव का आधार आर्थिक सामर्थ्य है । वसुनन्दिश्रावकाचार में कहा है कि ज्ञानपंचमीव्रत का उद्यापन जो व्यक्ति उक्त प्रकार से करने में असमर्थ हो वह व्रत का कालावधि दुगना करें । हिन्दु धर्मशास्त्रों में त्रैवर्णिकों के लिए व्रतबन्धसंस्कार का प्रावधान था । इस संस्कार के अनन्तर उनकी शिक्षा का आरम्भ होता था । जैन परम्परा में श्रावकव्रत ग्रहण करने के उल्लेख आगमों में मिलते हैं लेकिन वहाँ विधिपूर्वक व्रतग्रहण का विधान लिखित रूप में नहीं दिखाई देता । चौदहवी सदी के जिनप्रभसूरि को इसकी आवश्यकता महसूस हुई। परिणामवश उन्होंने सम्यक्त्व - आरोपणविधि तथा साधु एवं श्रावकव्रतों के ग्रहण की भी विधि बनायी । लेकिन श्रावकदीक्षा की विधि का प्रचलन जैन समाज में नहीं हो सका । निष्कर्ष : हिन्दु और जैन व्रतसंकल्पनाओं के आरम्भबिन्दु अलग-अलग हैं । अहिंसा, सत्य आदि उच्च मानवीय मूल्यों को जैनों ने साधु तथा श्रावकाचार में यावज्जीवन स्थान दिया । उन्हें ही आध्यात्मिक उन्नति का आधार माना । वैदिक तथा वेदोत्तर काल में कर्तव्यस्वरूप वर्णाश्रमधर्म दैनन्दिन तथा यावज्जीवन
SR No.229694
Book TitleHindu aur Jain Vrat Ek Kriya Pratikriyatmaka Lekha Jokha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnita Bothra
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size145 KB
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