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अनुसन्धान ५० (२)
मुझे उपलब्ध नहीं हुए।
इन चारों अवस्थाओं के निरीक्षण से हम इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि -
साधुव्रत तथा श्रावकव्रत आगमकाल से लेकर आजतक प्रचलन में
आगमोक्त तप प्रथम विधि के तौरपर आये और बाद में दुष्करता के कारण सुलभ व्रतों में परिवर्तित हुए । आरम्भ में व्रत तथा तप का उद्दिष्ट कर्मनिर्जरामात्र था । धीरे-धीरे उसमें ऐहिक और पारलौकिकता आयी और अन्त में मोक्षफलप्राप्ति छोडकर स्वर्गतक सीमित हुई । जैन परम्परा के अनुसार इस पंचम काल में जब कोई जीव इस भरतक्षेत्र में मोक्षगामी होनेवाला नहीं
है तब उनका स्वर्गप्राप्ति तक सीमित रहना ठीक ही लगता है । • व्रत विषयक श्वेताम्बरीय प्राकृत साहित्य में, दिगम्बरीय व्रतविषयक
संस्कृत साहित्य की तुलना में 'व्रत' शब्द का आम प्रयोग करने
का प्रचलन बाद में आया हुआ दिखायी देता है । (६) जैन व्रतों के अवस्थान्तरों की कारणमीमांसा :
हिन्द व्रतों में कालानुसारी जो परिवर्तन आये उसके अनुसार जैन व्रतों में परिवर्तन आना बिलकुल स्वाभाविक था क्योंकि अल्पसंख्य जैन समाज बहुसंख्य हिन्दु समाज के सम्पर्क में हमेशा ही था । इस सामाजिक सहजीवन का असर जैन व्रतों में भी दिखायी देता है । प्रवृत्तिप्रधान हिन्दुधर्म में पौराणिक व्रत प्रायः उत्सव स्वरूप और क्रियाकाण्डात्मक, विधिविधानों से भरे हुए थे। उनके प्रति आम जैन समाज का आकृष्ट होना स्वाभाविक था । जैन गृहस्थाचार में यद्यपि बारह व्रत शामिल थे तथापि वे निवृत्तिप्रधान और अमूर्त थे । इसी वजह से गृहस्थाचार से सम्बन्धित तप से निगडित तथा जैन तत्त्वज्ञान से सुसंगत इस प्रकार के नये विधिविधानात्मक व्रत जैन आचार्यों ने बनाये । जैसे कि 'सम्यक्त्व' के आरोपण की विधि