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- (५७) मुनिवर्य शीलचन्द्र विजयजीए वादीवेताल शान्तिसूरिनी उत्तराध्ययनवृत्ति (प्रायः इस्वी १०२५)मांथी 'वाचक' नामथी निम्नोट्टंकित पद्य प्रस्तुत करी तेने उमास्वातिरचित होवा सूचन कर्यु छे :
परिभवसि किमिति लोकं, जरसा परिजर्जरितशरीरम्। अचिरात् त्वमपि भविष्यसि, यौवनगर्वं किमुद्वहसि ?।।
'वाचकमुख्य' ना अभिधानपूर्वक जे कई उधृत थाय ते उमास्वातिकृत होवानो घणो संभव छे; पण वाचको तो अनेक थइ गयेला: जेमके अश्वसेन वाचक, सिद्धसेन वाचक, हारिल वाचक, इत्यादि जेवा अने केटलाक नाम दीधा वगरना वाचकोना उध्धरणो तेमां छे, जेनी शैलीनो अने वस्तुनो उमास्वातिनी शैली अने वस्तु साथे मेळ नथी. (उपर उट्टंकित पद्य इस्वीसनना १७मा सैकाना प्रथम चरणमां थई गयेला तपागच्छीय भावविजयनी उत्तराध्ययन वृत्तिमां पण उध्धृत छे, जे तेमणे शांतिसूरिनी वृत्तिमाथी लीधुं हशे.) ते पद्य अवश्य प्राचीन छे पण तेमां उमास्वातिनी पद्य-निबन्धन रीत न होतां नोखा प्रकारनी अने तेमना काळ बादनी छे. वस्तुतया तेनी शैली शान्तिसूरि ए नाम दईने (अने अन्यथा) हारिल वाचकनां जे पद्यो टांक्या छे तेने खूब ज मळती छे. त्यां एवो ज प्रशान्त मद्-मंजुल प्रवाह वरताय छे अने एवां ज ललित-गंभीर तत्त्व तथा वैराग्यपूर्ण विषाद विलसतां देखाय छे;
यथा; तथा च हारिलवाचकः चलं राज्यैश्वर्यं धनकनकसारः परिजनो नृपाद् वाल्लभ्यं च चलममरसौख्यं च विपुलम्। (?) चलं रूपारोग्यं चलमिह चरं जीवितमिदं जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः॥ तथा च हारिल: वातोद्भूतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव। ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्यविज्ञानदेहान् सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकनैहिकांश्च ।।
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