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होय तो ना नहि एवं वलण धरावता होवा छतां, स्पष्ट प्रमाणोना अभावमां ते अंगे स्पष्ट विधान न करतां, 'चिरन्तनाचार्यरचित' एवी परंपराने ज यथावत् स्वीकारे छे."
विद्वानोनां आ मंतव्यो तथा आरूढ परंपरानी सामे मारूं स्पष्ट विधान छे के पञ्चसूत्रना कर्ता स्वयं आ.हरिभद्रसूरिजी ज छे, अने बीजु कोइ ज नहि ज. मारा आ विधानना समर्थनमा हुँ केटलांक, अंतरग-बहिरंग परीक्षणो रजू करीश.
१. पंचसूत्रनी टीकानी समाप्ति थाय छे त्यां, छेवटे, त्रण वाक्यो आवे छेः 'प्रव्रज्याफलसूत्रं समाप्तम् । एवं पञ्चमसूत्रव्याख्या समाप्ता ।। समाप्त पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि ॥'
आ त्रण वाक्योमां त्रीजुं वाक्य खास ध्यान आपवाजोग छे. आ त्रीजुं वाक्य टीकाकारनुं छे, अने तेथी ते खरेखर 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतः' ए रीते; अने वस्तुतः जो टीकाकार अने सूत्रकार जुदा ज होय तो 'समाप्ता पञ्चसूत्रकटीका' आकुंज होवू जोइतुं हतुं. ज्यारे अहीं तो 'समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि' एवं वाक्य छे, ए अने एमांनो छेवटे मूकायेलो 'अपि' शब्द सूचक महत्त्व धरावे छे. ए 'अपि' सूचवे छे के 'पञ्चसूत्रक व्याख्यारूपे पण पूर्ण थयु ; अर्थात् , ते मूळसूत्ररूपे तेम ज व्याख्यारूपे – बने रूपे समाप्त थयु.' आमांथी जो 'अपि' शब्द काढी लइए, तो एवो अर्थ थशे के 'पञ्चसूत्र व्याख्यारूपे समाप्त थयुं' एक 'अपि' शब्द वधे छे ने आखो अर्थ-संदर्भ बदलाई जाय छे. ए सूचवे छे के जो टीकाकार अने सूत्रकार बे अलग व्यक्ति होत तो आवो प्रयोग - आq वाक्य कदी थइ शके नहि; बन्ने-सूत्र अने टीकाना प्रणेता एक/अभिन्न व्यक्ति होय तो ज आq वाक्य ते प्रयोजी शके. हवे टीकाकार कोण छे ते तो नक्की ज़ छे. एथी एमने ज सूत्रकार पण मानीए तो ज आवो वाक्यप्रयोग सुसंगत बने.
कोइ एम कही शके के मूळ सूत्रनी समाप्ति थई त्यां सूत्रकारे जेम 'समत्तं पंचसुत्तं ए वाक्य सूत्रसमाप्ति सूचववा माटे प्रयोज्युं छे तेम अहीं, ते वाक्यना अनुसंधानमां, टीकाकारे, टीकासमाप्ति सूचववा माटे आ वाक्य प्रयोज्यु
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