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अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१
कलाना रूपने, 'दोष' अनां भयस्थानने-क्यां जवं, क्यां न जवं, thus far and no further ना सीमाडाने. Line of demarkation –चोक्कस रीते ने रूपे बांधे छे. कलास्वरूपनी समग्रता – totality, बहुआयामी – Multidimentional - स्वरूपने दृष्टिमां राखीने चाले छे. आम, पूर्वनी कलामीमांसा विकसित ने पूर्ण रही छे.
भरतादि पछी समयान्तरे विविध ग्रन्थो रचाया अमां सर्जनमूळ, कृतिनां घटकअंगो अने भावन-मूल्यांकननी प्रक्रिया, अनुं स्पष्ट रूप प्राचीन ग्रीक अने भारतीय आर्य परम्परामां बंधायां. विविध काळना ग्रन्थोमां कलानो, अनी विकसती विभावनाना बन्धाता-विकसता जता रूपमा आलेख मूर्त थयो छे. ज्यां
केटलुक नवं के विशेषित आव्युं ओने आपणे नवोन्मेष के दृष्टिपूर्ण अभिनव सिद्धान्त प्रस्तुतीकरण-स्थापन तरीके स्वीकार्यु अने जे मीमांसकोओ सूत्रात्मक रूपमां पूर्व संचित सिद्धान्तनुं निरूपण कर्यु तेमनो 'समन्वय-कार'मा समावेश को. आ दृष्टिले मम्मट अने हेमचन्द्रने समन्वयकार तरीके विशेषतः ओळख्याओळखाव्या. पूर्वसंचितनुं नवनीत सूत्रबद्ध करवू, ओ समन्वयकार- मुख्य कार्य मनातुं आव्युं छे, त्यारे विशेष ध्यान से बाबत पर खेंचावं जोईओ, के आ वर्गना मीमांसको अने तेमना ग्रन्थो मात्र सारसंक्षेप के दोहन नथी ज. अमां एमनी पोतीकी दृष्टि, सूझ ने केटलीक आगळ जोवा न मळती होय तेवी स्थापना पण होय छे. कथानुं दृष्टान्त आपीने स्पष्टता करीओ तो 'हंसावती'नी कथाना असाइतथी आरम्भीने ते शिवदास सुधी ने तेथी पण आगळ जे कथाकृतिओ रचाइ, हंस-वत्स पर जैन स्रोतमां अनेक रासरूप रचनाओ थइ के पछी माधवानल, मारुढोला, सदेवंत-सावलिंगा, नळकथा, सगाळशाकथा ने बीजी ओवी अनेक कथाओ पर समय-समये जे अनेक कृतिओ रचाई तेमां अनेकनी ओक कथा, अना ओ ज स्वरूपमां नथी आवी. भाषा अने सामाजिक परिस्थितिमा जे परिवर्तनो आव्यां, अटलां ज नवी कृतिमां छे अq नथी. आ उपरान्त पण ओ कथाओ पाछळ रहेला रचनाहेतु, समकालीन कण्ठपरम्परानां उमेरण-संवर्धन-रूपान्तर अने खास तो अना निरूपकनुं दृष्टिबिन्दु, प्रचलित ओवी कथामांथी पण नवी ज ओवी कृतिरूप रचना करे छे. अने कर्तानी सर्जकता, कल्पकता, दृष्टिबिन्दु - point of view ने केटलुक नवं ज अर्थदर्शन