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सप्टेम्बर २००८
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मार्कण्डेयपुराण में प्रार्थना के अनन्तर पितरों का तेज बाहर निकलना और उनके पुष्प, गन्ध, अनुलेपन से भूषित होने का निर्देश किया है । पण्डित भिलवडीकरजी ने कहा है कि पितर मुख्यत: अमूर्त और वायुरूप होते हैं और तर्पण तथा श्राद्ध के समय मूर्तिमान बनकर आते हैं |२८
(क) 'पितर' संकल्पना की जैन दृष्टि से समीक्षा :
ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक तथा अतिप्राचीन काल से आजतक पूरे भारत वर्ष में पितर, तर्पण, पिण्ड तथा श्राद्ध ये कल्पनाएँ दृढमूल दिखायी देती है । जैन परम्परा में प्राचीन काल से लेकर आजतक अपने आचारव्यवहार में इन संकल्पनाओं को अवसर नहीं दिया है । इसके मुख्यतः दो कारण है ।
९. पितर संकल्पना का सुव्यवस्थित न होना ।
२. जैन दार्शनिक पृष्ठभूमि इस व्यवहार के लिए अनुकूल न होना । इन दोनों कारणों का विशेष ऊहापोह यहाँ किया है ।
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( १ ) सुसूत्रता का अभाव :
इसके पूर्व किये हुए विस्तृत विवेचन में इस मुद्दे पर अच्छी तरह प्रकाश डाला है । अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं कर रहे हैं ।
(२) यज्ञों की प्रधानता :
ऋग्वेद में पितरों का सम्बन्ध यज्ञ से जोडा हुआ है । मनुस्मृति में तो पंचमहायज्ञों में पितृयज्ञ का स्पष्टतः उल्लेख है । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ने यज्ञीय परम्परा का जमकर विरोध किया है । 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के ८ वे शतक में और 'स्थानांग' के ४ थे स्थान में नरकगति के बन्ध के चार कारण दिये हैं ।
(१) महाआरम्भ ( अमर्यादित हिंसा) करनेसे (२) महापरिग्रह
२७. मार्कण्डेयपुराण अध्याय ९४, श्लोक १४, १५ २८. पितर व पितृलोक पृ. १३
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