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अनुसन्धान-५८
वृतसंक्षेप कह्यो तप सार, सचितद्रव्य करें परिहार, रसत्याग जे आंबिल करे, कायक्लेस आतापना धरे ॥१०५।।
आंगोपांग संवरीने रह्यो, सलीनतातप तिणनें कह्यो, दुषण लागे प्रायछित धरइ, ज्ञांनी गुरुनो विनय करइ ॥१०६।। गुरूने आणी आपें आहार, वीयावचतप कह्यो सार, मन वचन ठांम राखी काय, पांच प्रकारे करो सज्झाय ॥१०७॥ सू(शु)कलध्यांन धर्मध्यांन ज धरो, कर्म खपावा काउसग्ग करो, बार प्रकार नीरजरा कही, पांचमें आगमें गुरमुखथी लही ॥१०८॥ प्रकृतिबंधनो एह प्रस्ताव, रूडो पाडुयो होय सभाव, स्थितबांधी करमें जेतली, ते सही जीव भोगवें तेतली ॥१०९॥ अनुभाग रूप रस केलवो, प्रदेस कर्मना दल मेलवो, ए बंधना च्यार प्रकार, टाले ते भव पामें पार ॥११०॥ मोक्षतत्व ते नवमो द्वार, तेह तणो कहुं अधिकार, छतो पद ते मोक्षज सही, आकासकुसमनी पर नही ॥१११॥ बीजें भेदें द्रव्यप्रमाण, मोक्ष विषे सिद्ध केतला जाणि, जीवद्रव्य सिद्धना अनंत, एहवी वात कही भगवंत ॥११२॥ सिद्धक्षेत्र ते केतलो होय, सिद्ध रह्या अवगाही जोय, असंख्यातमे भागे लोकनें जांण, सिद्ध रह्या एक अनंता मान ॥११३॥ स्फर्शना द्वार ते चोथो कयो, सिद्ध केतलो खेत्र फरसी रह्यो,
क्षेत्र थकी मांनो निरधार, झाझेरो ते स्फर्शना सार ॥११४।। सिद्धने हुयो केतलो काल, ते भाख्यो छे दीनदयाल, एक सिद्ध आश्री सादि अनंत, सहु आश्री अनादि अनंत ॥११५।। छठो कह्यो सिद्ध अंतर द्वार, सिद्ध सिद्धमां अंतर सार, सिद्ध सिद्धमां अंतर नांहि, सिद्ध रह्यो छै माहोमांहि ॥११६॥ भाग द्वार सातमो वखांण, केतमें भागे सिद्ध रह्या जाण, संसारी ते सघला जीव, अनंतमें भागें सीध सदैव ॥११७॥ आठमा द्वार तणो प्रस्ताव, सिद्ध रह्या छै केहवि भाव, ज्ञांन दर्शन छे क्षायिकभाव, जीव पणो परिणामकभाव ॥११८॥