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अनुसन्धान ४९
थी । इसमें उन्होंने अन्य कृति न मिलने के कारण श्रीसुन्दर की ही कृति माना और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की शिष्य परम्परा में स्वीकार कर प्रतिपादन भी कर दिया ।
श्रीवल्लभगणि लिखित प्रति की लेखन पुष्पिका इस प्रकार है :
"इति श्रीसुन्दरः-पण्डितप्रकाण्ड श्रीसुन्दरमुनिविरचित श्रीमत् चतुर्विंशति-जिनाधिपति-स्तुति-वृत्तिः समाप्ता ॥ लिखिता पं. श्रीवल्लभगणिना ||श्रीः॥" इस यमकमय स्तुति का आद्यन्त इस प्रकार है :
युगादिदेव स्तुतिः । नित्यानन्तमयं स्तुवे तमनघं श्रीनाभिसूनुं जिनं, विश्वेशं कलयामलं पर-महं मोदात्तमस्तापदम् । नित्यं सुन्दरभावभावितधियो ध्यायन्ति यं योगिनो, विश्वेऽशंकलयामलं परमहं मोदात्त-मस्तापदम् ॥१॥
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श्रीवीर-जिनस्तुतिः । वीरस्वामिन् ! भवन्तं कृतसुकृततति हेमगौराङ्गभासं, ये मंदन्ते समानन्दितभविकमलं नाथ ! सिद्धार्थजातम् । संसारे दुःखमस्मिन् जितरिपुनिकरा संश्रयन्ते घनापायेऽमन्दं ते समानं दितभाविकम-लं नाथ सिद्धार्थजातम् ॥१॥
लेखन पुष्पिका में श्रीसुन्दरमुनि विरचित ही लिखा है और लेखन में अपना नाम श्रीवल्लभगणि लिखा है । श्रीवल्लभगणि श्रीज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य हैं और इन्हें संवत् १६५४ के पूर्व ही गणिपद प्राप्त हो चुका था, अतएव यह संवत् १६५४ के पश्चात् की ही लेखन प्रशस्ति है ।
समय का प्रवाह अबाध गति से चलता रहा । इस वर्ष मुनिश्री सुयशचन्द्रविजयजी ने संकेत किया कि इस कृति के कर्ता चारित्रसुन्दरगणि हैं, प्रति प्राप्त हुई है ! इसकी फोटोकॉपी भी इन्होंने भेजी । पुस्तक का आद्यन्त
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