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जून २००९
राज्ये तस्य सुखावहे गुणवतामभ्राग्निनन्दक्षितौ (१९३०) वर्षे राघवलक्षपक्षदिवसे चन्द्राष्टमीसत्तिथौ ॥१॥
या वादि-प्रतिवादियस्य तमसा संपूरिता मालवे, न्यायान्यायविवेककारकमुखात्प्राचीककुब्सन्निभात्रिर्णीतार्थकराप्तये कृतिसभा श्रीरत्नपुर्य्यामभूच्चिन्ताला भनिमीलिकालयकरी भव्याविभावोपमा ॥२॥ तस्यां पाठकबालचन्द्रगणिभिर्निर्णन्यभावंगतैः
संवेगिव्रतिऋद्धिसागरयुतैः श्रीसंघहूत्यागतैः । सिद्धान्तप्रतिघप्रभाकरनिभः सन्दर्भ एष प्रियः ग्रन्थान्वीक्ष्य प्रकाशितो मतिमताम्बोधाय निर्णीय च ॥ ३ ॥
इन दोनों वादी प्रतिवादियों के मध्य में पाँच विषयों पर मतभेद था ।
१. वादी :- परमेश्वर की जल चन्दन पुष्पादिक के द्वारा जो द्रव्य पूजा करते हैं उसका फल अल्पपाप और अधिक निर्जरारूप है ।
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प्रतिवादी :- झवेरसागरजी का कथन है कि परमेश्वर की द्रव्यपूजा का फल शुभानुबन्धी प्रभूततर निर्जरारूप है ।
२. वादी:- प्रतिक्रमण और देववन्दन के मध्य में चौथी थुई नहीं कहना चाहिए, वैयावच्चगराणं आदि प्रमुख पाठ भी नहीं कहना चाहिए । सामायिक वन्दित्तु में "सम्मदिट्ठिदेवा दितु समाहिं च बोहिं च" इस पद में देव शब्द नहीं कहना । क्योंकि, सामायिक में चार निकाय के देवताओं के सहयोग की वांछा करना युक्त नहीं है ।
प्रतिवादी :- चतुर्थ स्तुति और वैयावच्चगराणं प्रमुख पाठ कहना चाहिए ।
३. वादी :- ललितविस्तराकार श्री हरिभद्रसूरि के समय निर्णय के सम्बन्ध में है । वादी ९६२ वर्ष मानते हैं ।
प्रतिवादी ५८५ वर्ष मानते हैं ।
४. वादी:- साधु को वस्त्ररंजन करना अर्थात् धोना अनाचार है ।
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