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January-2003
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तर्कोनां छोतरां उखाडती श्री ढांकीनी दलीलो कटाक्ष-आदर-पडकारना मिश्रणथी रोचक बनी छे, पण रुचिभंग नथी करती. तारंगाना अर्हत् अजितनाथ प्रासादना कर्ता विशे बे समकालीन विद्वानोनी आलोचना करतो लेख (खंड-२, पृ. १६९) इतिहासकारना उत्तरदायित्वनी छबी प्रस्तुत करे छे. इतिहासमां अटकळ पर आधार न ज राखी शकाय, नक्कर तंथ्यो ज सर्वोपरि बनी रहेवां जोईए ए मुद्दो आ लेखमां सारो तरी आवे छे.
श्री ढांकी शिल्प-स्थापत्य-पुरातत्त्वना विशेषज्ञ छे तेथी जिनमन्दिरो अने शिल्पोना संशोधनमा तेमनी दृष्टि विशेष काम करे छे. ग्रंथनो बीजो खंड शिल्प-स्थापत्य-मंदिर विषयक लेखोथी भरचक छे. द्वितीय खंडना अंते चित्रविभागमां मोटी संख्यामां शिल्प--मूर्ति आदिनी छबीओ अपाई छे, जे नजराणां समान छे.
'गौतमस्वामी स्तवना कर्ता वज्रस्वामी विशे लेखमां, प्रशस्तिलेखना वाचनमां एक आंकडो छुटी गयानी कल्पना अने तेना समर्थनमां आधारो आप्या छे ते तेमना जेवा आ क्षेत्रना सुदीर्घ अनुभवीने ज सझे एवी वात छे. 'चिकुर द्वात्रिंशिका'ना कर्ता कुमुदचन्द्र दिगंबर विद्वान छे अने 'कल्याणमन्दिर ना कर्ता पण ए ज छे, सिद्धसेन दिवाकर नहि, आना समर्थनमां सुन्दर तर्कश्रेणि लेखके आपी छे. 'प्रभावकचरित' (खंड-२, पृ. ९५)नी एक खूटती कडी लेखके आबाद शोधी काढी छे. कल्याणत्रय (खंड-१, पृ. २२६) प्रकारनी शिल्परचना उपर आ ग्रन्थमा पहेलीवार प्रकाश पाड़े छे.
मुद्रण, कागळ अने सजावटथी सुंदर तथा चित्रविभागथी समृद्ध एवा आ ग्रन्थमां प्रूफवाचननी क्षतिओ जो के रही छे. संस्कृत-प्राकृत सामग्रीमां आवी अशुद्धिओ वधारे प्रमाणमां छे जे आ कक्षाना- ग्रंथमां बाधारूप बनी शके छे, ०पण्णरस-चास (खंड-१,पृ.९४)-अहीं चास ने स्थाने 'वास' साचो शब्द छे. दलसंचनियं (खंड-१, पृ.२४), 'तेओ' (खंड-१, पृ.३३), "किं भणियो जाणडज्जं' (खंड-१, पृ. ६७) जेवी अशुद्धिओ अन्य पण घणी छे. खंड-१, पृ. २६० पर आपेला 'रैवतगिरिस्तोत्र'मां आवी भूलो सारा प्रमाणमां रही छे, तेमांनी केटली प्रूफवाचननी अने केटली हस्तप्रतवाचननी हशे, ते तो
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