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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
आमई लज्ज न कज्ज वो गुज्जरी झप्भरी ज्यंतती ड़े, कि० आछयां त्रांकड़ पाय दिसंदी मंगती डे, कि० ९
[ढाल-२] हरमजनो वाहण पूरा, रे - ए देशी. गुज्जरी गुज्जरी स्युं कहइ, सा द्यइं छि उलंभा; अह्मे गुजरातीअ गोरड़ी, ते तो सहीअ दुलंभा. देव जुहारवा आविआ, नहींतरि इणि देसि; कुण अकरमीअ काछड़इ, कहु करइ प्रवेस. वाड़ीअ वन नही सुपनमां, नहीं कहीं अंबराइ; रायण प्रमुख न रूंखड़ा, नहीं केतकी जाई. रोड़ीअ बोड़ीअ भूमिका, चिहुं दिसि मइदान; चोखा-गहूं इणि देसड़ि, नवि नीपजइ धान. नहीं कहीं मोटा सरोवरू, नहीं नदीए पाणी; खाएं रण पड्युं चुबखेर, पसूरिधि वखाणी. अणहलवाड़ा नयरनी, हवि बोलिअ नारी; विनय-विवेक-विचारणा, चतुराईइं सारी. रहु रहु बाई कां करु, एह देसनी निंदा; धन धन एह पणि काछ देस, जिहिं पास जिजिंदा. १६ विजय चिंतामणि परगट्या, तपगच्छ जयकारी; श्रीखंभायत नयरनी, वली बोलीअ नारी. १७ बाइश्री बाईइं भलुं कहिउं, न विखोडिइं देस; पणि जुओ ए ओसवालिनो, स्यु दीसइ छइ वेस. १८ बांध्युं ढेपाईं पहिरणइ, माथइ कांबलड़ी; कस कहींई बांधइ नहीं, छूटी कांचलडी. नहीं फूली नहीं राखड़ी, नवि माधुं गूंथइं; राति-दिवस रोलुं करइं, छांणपुंजु चुंथइं. लांबा लटकई नागला, जाणे हींचोला; सोनुं-वार्नु पहिरइं घj, चतुराईइं मोला. रूपई दीसती राखसी, कुच कंबल झोला;