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अनुसन्धान ४६
व्याधियों को कैसे रोका जा सकता था ? सामान्यतया व्याधिग्रस्त हो जाने पर जैन साधु को चिकित्सा कराने और औषधि-सेवन करने का निषेध है,
और जैसे भी हो सर्वत्र संयम की प्रतिष्ठा का ही उपदेश दिया गया है। लेकिन कितने ही प्रसंग ऐसे उपस्थित होते, जबकि संयम की अपेक्षा अपनी रक्षा करना अधिक आवश्यक हो जाता (सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खंतो-निशीथचूर्णी, पीठिका ४५१) । बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति (१.२९००) में कहा है
शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।
शरीराच्छ्रवते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥ - जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है, वैसे ही शरीर से धर्म प्रवाहित होता है, अत एव धर्मयुक्त शरीर की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए । व्याधियों का उपचार
कहना न होगा कि किसी असाधारण रोग या व्याधि से पीड़ित होने पर साधुओं को चिकित्सा कराने के लिए बाध्य होना पड़ता था । उदाहरण के लिए, कोढ़ हो जाने पर जैन श्रमणों को दारुण कष्ट का सामना करना पड़ता । यदि उन्हें गला हुआ कोढ़ हो जाता, उनके खुजली (कच्छ) हो जाती, उनके कोढ़ में खाज (किटिभी आने लगती, या जूए पैदा हो जाती तो उन्हें निर्लोम चर्म पर लिटाया जाता (बृहत्कल्पभाष्य ३.३८३९-४०) । यदि वे एक्जीमा(पामा) से पीडित रहते तो उसे शान्त करने के लिए मेढे की पुरीष
और गोमूत्र काम में लिया जाता (ओघनियुक्ति ३६८, पृ. १३४-अ) । यदि उनके कोढ़ में कीड़े (कृमिकुष्ठ) पड़ जाते तो उन्हें और भी भयंकर कष्ट होता । एक बार किसी साधु के कृमिकुष्ठ द्वारा पीड़ित होने पर वैद्यने तेल, कम्बलरत्न और गोशीर्ष चन्दन (एकप्रकार का सफेद चन्दन) का उपचार बताया । लेकिन ये तीनों वस्तुएं मिलें कहां से ? अन्त में किसी वणिक् ने बिना मोल के ही कम्बल और चन्दन दे दिये 1 साधु के शरीर में १. अन्य तेलों में शतपाकतेल, हंसतेल, मरुतेल और कल्याणघृतका उल्लेख मिलता
है, जगदीशचन्द्र जैन, "जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज", पृ. ३१६; अंगविज्जा, अध्याय ५० ।
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