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अनुसन्धान ४८
सरस्वती । किन्तु इन चारों का सम्बन्ध सरस्वती देवी से नहीं है। जहाँ तक भाष्य शब्द साहित्य की टीकाओं का प्रश्न है, अभिधानराजेन्द्रकोष में पंचकल्प भाष्य की टीका को उद्धृत करके श्रुतदेवता शब्द को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है कि श्रुत का अर्थ है अर्हत् प्रवचन, उसका जो अधिष्ठायक देवता होता है, उसे श्रुतदेवता कहते हैं । इस सम्बन्ध में अभिधानराजेन्द्रकोष में कल्पभाष्य से निम्न गाथा भी उद्धृत की है
सव्वं च लक्खणो-वेयं, समाहिदुति देवता ।। सुत्तं च लक्खणोवेयं, जेय सव्वण्णु-भासियं ॥
यद्यपि मुझे बृहत्कल्पभाष्य में यह गाथा नहीं मिली । संभवतः पंचकल्पभाष्य की होगी, क्योंकि उन्होंने यदि इसे उद्धृत किया है तो इसका कोई आधार होना चाहिए । संभवतः यह पंचकल्पभाष्य से उद्धृत की गई हो ! इसमें श्रुत का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो सर्वज्ञभाषित है, वह श्रुत है और जो उसे सर्वलक्षणों से जानता है या अधीत करता है, वह श्रुतदेवता है । भाष्यसाहित्य में श्रुतदेवता या सरस्वती का अन्य कोई उल्लेख है, ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है । यद्यपि भाष्यसाहित्य से किंचित् परवर्ती पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ के पंचमद्वार रूप पाँचवे भाग में श्रुत देवता के प्रसाद की चर्चा हुई है । अभिधानराजेन्द्रकोष में उसकी निम्न गाथा उद्धृत की गई
सुयदेवता भगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं । तेसिं खवेउ सययं, जेसि सुयसायरे भत्ती ॥
इस गाथा का तात्पर्य यह है कि - "जिसकी श्रुत सागर में भक्ति है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म के समूह को श्रुत देवता सतत रूप से क्षीण करे।'' इस गाथा की वृत्ति में टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि वस्तुतः कर्मों का क्षय श्रुतदेवता के कारण से नहीं, अपितु श्रुतदेवता के प्रति रही हुई भक्ति-भावना के कारण होता है । इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने श्रुत के अधिष्ठायक देवता को व्यन्तर देवयोनि का बताया है और यह कहा है कि वह साधक के ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिक्रमणसूत्र में पांचवे आवश्यक में
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