________________ September-2006 39 प्रणेता - इस कृति के निर्माता हरिकलश यति हैं। हरिकलश यति के सम्बन्ध में कोई भी ज्ञातव्य जानकारी प्राप्त नहीं है / इस कृति में स्वयं को राजगच्छीय बतलाते हुए धर्मघोषसूरि के वंश में बतलाया है / राजगच्छ की परम्परा में धर्मसूरिजी हुए हैं / यही धर्मसूरि धर्मघोषसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए / इनका समय १२वीं शती हैं / इन्हीं धर्मघोषसूरि से राजगच्छ धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ / शाकम्भरी नरेश विग्रहराज चौहान और अर्णोराज आदि धर्मघोषसूरि के परम भक्त थे / यहाँ कवि ने धर्मघोषगच्छ का उल्लेख न कर स्वयं को धर्मघोषसूरि का वंशज बतलाया है। संभव है कि हरिकलश के समय तक यह गच्छ के नाम से प्रसिद्ध नहीं हुआ हो ! इसी परम्परा के अन्य पट्टधर आचार्य का भी उल्लेख नहीं किया है। रचना समय - प्रणेता ने रचना समय का उल्लेख नहीं किया हन् / साथ ही इस तीर्थमाला में धुलेवा - केसरियानाथजी एवं महाराणा कुम्भकर्ण के समय में निर्मित विश्वप्रसिद्ध राणकपुर तीर्थ का भी उल्लेख नहीं किया है / अत: अनुमान कर सकते हैं कि इस कृति का रचना समय सुरत्राण अल्लाउद्दीन के द्वारा चित्तौड़ नष्ट (विक्रम संवत् 1360) करने के पूर्व का होना चाहिए / श्लोक 14 में 'दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरन्निर्झराधुच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बुकुण्डद्रुमसरलसरोनिम्नगासेतुरम्ये' लिखा है। इसमें कीर्तिस्तम्भ का उल्लेख होने से महाराणा कुम्भकर्ण द्वारा निर्मापित कीतिस्तम्भ न समझकर जैन कीर्तिस्तम्भ ग्रहण करना चाहिए जो १३-१४वीं शती का है। महाराणा कुम्भकर्ण का राज्यकाल विक्रम संवत् 1490 से लेकर 1525 तक का है। इमें ईडर को भी मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत लिखा है, ईडर पर अधिकार १३-१४वीं शताब्दी में ही हुआ था। दूसरी बात इन स्थानों पर विशालविशाल ध्वजकलश मण्डित और शिखरबद्ध अनेकों जिनमन्दिरों का उल्लेख यह स्पष्ट ध्वनित करता है कि यह रचना चित्तौड़-ध्वंस के पूर्व की है / अतः मेरा मानना यह है कि इस कृति की रचना १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई है। हरिकलश यति संस्कृत साहित्य, छन्दःसाहित्य और चित्रकाव्यों का प्रौढ़ विद्वान् था / व्याकरण पर भी इसका पूर्णाधिपत्य दृष्टिगत होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org