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श्री जिनपतिसूरि पंचाशिका
- श्री भंवरलाल नाहटा रागिमिहुणं व रत्तं सुकुमारं चंदव्वड भवणं व । दोसरहिं च सलक्खण विंद वच्छं च ससिरीयं माणिमणं वसु मुन्नयम मायि वयणं च सरलमभिवंदे ।। जिणवइणो नियगुरुणो चरणजुगं सूरिरायस्स
॥२।। सुगुरु गुरुपुनलब्भं दंसणमवि तुम्ह पायपउमाणं । छायं पि अकयसुकया पावंति न कप्पसाहीणं
।।३।। पहुचरिय संकहविहु विहुणिय संता संतइ तुम्ह । गिण्ह वंदण वच्चत्थ निव्वुई कस्स न जणेइ समयम्मि जम्मि जम्मे जाओ तुम्हारिसाण अकलीण । सो कह कलित्ति भन्नइ नहि जलणे जं जलुप्पत्ती खारोदहिम्मि अमयं मुत्तिय भवि फरुससिप्प पुडयंमि । जल ममलं मलिण घणे दट्टणं अहव तक्केमि
॥६।। एयारिसेवि समये संभवइ भवारिसाण इह भूई। आइवराहुव्व धरुद्धरणाय कयावयाराणं
||७|| हसइ व अणूवदेसे मरू विधलसेयसिहरदंतेहिं । नव कप्पदुमे सिव सुह फलयंमि तुमंमि जायंमि असुराणवि नमणिज्जे करियावाइम्म अंगिरस जणए । जयइ दिव्वं विक्कमपुर मप्पुव्व गुरुंमि तई जाए ॥९॥ तं पिहुणो पढमं चिय नामं जसवद्धणुत्ति विक्खियं । मन्ने भावि भवारिम पुरिस जणिगत जसवत्ता ॥१०॥ जणणीवि सूहवा जसमई कहिं सामहिव्व मा हवउ । जीसे गब्भमि गुरू तं वुच्छो कणयकंतिधरो
॥११॥ अइसुंदेरि पत्तं लोए चित्तेण सयल मासाणं । नूणं तुह जम्मेणं तुल्लविय कालओ इहरा
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