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अनुसन्धान ४३
होता है । संवत १५०१ में चाम्पानेर में आपको गच्छनायक पद प्राप्त हुआ और संवत् १५४१ पोस सुदी ८ के दिन खम्भात में इनका स्वर्गवास हुआ ।
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चांपानेर नरेश गङ्गदास तो इनके भक्त थे ही, गङ्गदास के पुत्र जयसिंह पताई रावल भी इनका भक्त था । लावण्यचन्द्र की पट्टावली के अनुसार सुलतान अहमद (महम्मद बेगडा ) भी आपके चमत्कारों से प्रभावित था । सायला के ठाकुर रूपचन्द और उनके पुत्र सामन्तसिंह ने जीवनदान पाकर जैन धर्म स्वीकार किया था । जम्बूसर निवासी श्रीमाल कवि पेथा भी आपके द्वारा प्रतिबोधित था ।
आपके द्वारा विक्रम संवत् १५०१ से लेकर १५३९ तक २०० के लगभग प्रतिष्ठित मूर्तियाँ प्राप्त होती है। जयकेसरीसूरि की २ ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं :- १. चतुर्विंशति - जिन - स्तोत्राणि और २. आदिनाथ स्तोत्र । चतुर्विंशति - जिन - स्तोत्राणि मेरे द्वारा सम्पादित होकर आर्य जयकल्याण केन्द्र, मुम्बई से विक्रम संवत २०३५ में प्रकाशित हो चुकी है। इस कृति को देखते हुए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि जयकेसरीसूरि प्रौढ़ विद्वान थे ।
उनकी गुण गाथा को प्रकट करने वाली अनेकों कृतियाँ प्राप्त हो सकती हैं। मुझे केवल चार कृतियाँ ही प्राप्त हुई, जो कि एक ही पत्र पर लिखी हुई हैं । लेखन संवत् नहीं है किन्तु लिपि को देखते हुए १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गई हो ऐसा प्रतीत होता है ।
प्रथम कृति भास के रूप में है, जिस में श्री जीराउली पार्श्वनाथ को नमस्कार कर अञ्चलगच्छ नायक जयकेसरीसूरि के माता-पिता का नामोल्लेख है । इसी के पद्य ५ में रञ्जण गङ्ग नरिन्द्र का उल्लेख भी है । दूसरी भास नामक कृति कवि आस की रचित है । नगर में पधारने पर विधिपक्षीय जयकेसरीसूरि का वधावणा किया जाता है, और संघपति महिपाल जयपाल का उल्लेख भी है । तीसकी कृति गीत के नाम से है । इसके प्रणेता हरसूर हैं, और इसमें जयकीर्तिसूरि के पट्टधर जयकेसरीसूरि के नगर प्रवेश का वर्णन किया गया है । चौथी कृति भास नामक है । इसके प्रणेता हरसूर हैं, जिसमें श्राविकाएँ नूतन शृङ्गार कर जय-जयकार करती हुई, मोतियों का चौक पुराती हुई, उनका गुणगान करती है, आचार्य को देखकर नेत्र सफल
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