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June-2003
इंम अनेक खमया थकी सुखीआ नर नरलोइं रे । हूआ होस्यइ ते घणा आतम कां नवि जोइ रे ? ॥ जीवडा कां नवि जोइ रे || ५१ (५२) |उप० ॥
सरप सिंह कोधई होइ क्रोधई नरगइ जईइ रे । जनम जनमनी प्रीतडी कोध थकी सवि खही रे || ५२ (५३) ॥उप० ॥
कोधई तप जप कीधलो ते लेखि नवि आवइ रे ।
आप तपइ पर तापवइ क्रोधइं कुंण सुख पावइ रे || ५३ (५४) उप० ॥
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घणा एह
उपदेसो रे ।
इम कहि वीर जिणेसो रे || ५४ (५५) || उप०॥
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क्रोध जीव
एह ख्यमा पंचावन्नी सुणयो भणयो भावइ रे ।
लबधि विजय कवियण कहि खमतां सवि सुख होवइ रे ॥५५ (५६) |उप० ।
॥ इति खिमा पंचावन्नी ||
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(२) मुनिऋद्धिविजयविरचित-नारीस्वरूप- प्ररूपणस्वाध्याय ॥ (राग - मारुणी)
मनि आणी जिनवाणी प्राणी जाणीइ रे, ए संसार असार । दुखनी खांणी एह वखाणी कामिनी रे, म करिसि संग लगार || भोला भूलि मां रे ॥१॥ भमुह भमाडर आंखि देखाडइ प्रीतडी रे, हसी हसी बोलि बोल । मुंहडि डि हईडि कूडी जीवडा रे विषवेलिनइ तोल ||२|| भो० ॥ आंसू पाडइ दुख देखाड आपणउं रे, सांभलि साहस धीर । आणइ ज मारइ नही अमराइ तु विना रे, अवर हईआनुं हीर || ३ |भो० || लज्जा धरसी आगलि फिरसी कामिनी रे, करती नयनविलास । मोहपासमां पड्यानड्या जे बापडा रे, नर नारीना दास ॥४॥ भो० ॥
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