SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ June-2003 55 माता बालक मलहरिजी लइ ठीकरस्यउं रे दूरि । निंदक निज मुखस्यउं लीइजी पर अवगुण मल पूर ॥१०॥ सो०॥ पर परिवाद करी करइजी जिम जिम वचन उचार । परनिंदक परभवि लहइजी तिम तिम कठिन विकार ॥११॥ सो०। जिणइ वचनई पर दूखीइजी जिणइ हुइ प्राणीघात । क्लेश पडइ निज आतभाजी त्यजि उत्तम ते वात ॥१२॥ सो०।। परनिंदा इंम परिहरीजी करि समता निस दीस । कमलविजय पंडिततणोजी हेमविजय कहि सीस ॥१३।। सो०॥ ॥ इति समता-सज्झाय ॥ ★★★ (७) लावण्यसमय विरचित - जीभ-सज्झाय जीव भणइ सुणि जीभडली रे पापि पिंड भरावइ । आप सवारथि आधी आवइ अह्मचइ काजि न आवइ ॥१॥ बापडली जीभडली ढाल पडी छइ एहवि खारां खाटां खट रस सेवइ, अरिहंत नाम न लेवइ ॥२॥ आंचली ।। काया पुर पाटण हुं राजा तुं थापी पटराणी । हजी लगि गुरुवचन विहूणी इसी भगति नवि जाणी ॥३॥ नर बत्तीस रहइं रखवाला आगलि पोलि पगारा । तुहइ नीलजपणउं न छंडइ हीडइ छंदाचारा ॥४॥ ध्यान धरूं जब स्वामी तव सहियर बोलावइ । जपमाली कर थकी पड़ावइ मुझनइ मांड बोलावइ ॥५॥ तुं बंधावइ तुं छोडावइ तुं जामलि कुण आवइ । नारि भली जे प्रियस्युं भगती घरनो चाल चलावइ ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229484
Book TitleVividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyankirtivijay
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size557 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy