________________
32
कुंभचक्रे नक्षत्र आवे सवि पाप ताप संमावे कंठे फुल माल नालेर सुभ वस्त्र आछादित सार ॥४॥ शालि-स्वस्तिक उपर था सुंदरी गीत ग्यांन आलापे जिन साशनमां ए करणी निरविघन तणि ए नीसरणी ॥५॥ सवि अंकमां अक्षय अंक तेह मानें गणवो निस्संक सोहव पुत्रवंति नारी नवपदनो मंत्र संभारी ॥६॥ थिर सासें अखंड धारे जल पुरीजें सुभवारे लघुस्नात्र ते दिनथी सोहिई शांति स्मरण त्रिसंझ जोइइं ॥७॥ एह किरीयामां हुसीयारी त्रिकरण योगें व्रतधारी उज्वल तास वछि गवरी (?) घृतदीप पूरे शुभ कुंमरी ॥८॥ सूर्यकांतिनो देवता योगें धर्मदीपक प्रगटें उद्योगे इम कुंभथापन दीपयुगति । सौभाग्यलक्ष्मिसूरी शक्ति ॥९॥
इति कुंभथापना-भास।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org