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अनुसन्धान ३४
उपलब्ध छे. एम लागे छे के समये समये मूळनी कथामा सुधारावधारा थया कर्या हशे अने जैन कथाकारोना अति मानीता घटकतत्त्व एवा 'पुनर्जन्म'नी गूंथणी पण एमां थई गई हशे. कथामां ज नहि, लेखक-नाममां पण 'आचार्य' अने 'सूरिजी' वणाई आव्या हशे ! के. ह. ध्रुव जणावे छे के तरङ्गवतीनो कर्ता पालित किंवा श्रीपालित मारी समजमां जैनेतर ठरे छे, केमके ८मा शतकना हरिभद्रसूरिनी 'शिष्यहिता' नामे बृहद्दत्तिमां "इतरलोके निर्दिष्टवशाद् वासवदत्ता तरङ्गवती इत्यादि" मुजब आ कथानो समावेश जैनेतर साहित्यमां को छे. ... के.ह.ध्रुव प्रमाण आपतां नोंधे छे के नेमिचन्द्र गणिना यश नामना शिष्ये तरङ्गलोला एवं नाम राखी जैनी दीक्षा आपी.' (पद्यरचनानी ऐतिहासिक आलोचना' पृ. १७७)"
प्रा. पलाणनां अन्य विधानो पण आ ज लेखमां छे, ते जोई लईए : "वलभीभंग पूर्वे जे लौकिक कथा छ, वलभीभंग उत्तरे जैन कथा बने छे." "....जैन संस्करणनी उत्तर मर्यादा १५मी सदी सुधीनी आंकी शकाय छे." "...पादलिप्त अने नागार्जुननी कथाना अंशो पाछळनो उमेरो समजवो जोईए." "मूळनी कथानुं ई.स.नी ८मी सदी पछी जैन संस्करण थयुं हशे अने क्रमशः आजनुं स्वरूप बंधातां ५००-७०० वर्ष लाग्यां हशे."
प्रा. पलाणना उक्त लेखनां तारणो आटलां तारवी शकाय : पादलिप्त जैन कवि/सूरि नहोता; जैनेतर हता, तेमने पछीना जैन संक्षेपकारे जैन कवि बनावी दई तेमना नाम साथे आचार्य व. पदवाचक शब्दो
गोठवी दीधा छे. २. पोताना आ निरीक्षणमा तेमने के. ह. ध्रुवनो टेको मळे छे. ३. 'तरङ्गवती' ए जैन कथा नथी. मूलत: ते अजैन अथवा लौकिक कथा
छे. पाछळथी तेने जैन कथानुं रूप अपायुं छे, अने तेमां ५००-७०० वर्षोमां, सम्भवतः छेक १५मी सदी सुधीमां अनेक प्रक्षेपो थतां रह्या छे. जैन साधुओ विरागी-वीतरागी होई शृङ्गार अने वीररसनी वातोथी तेओ साव अनभिज्ञ ज होय, अॅथी तेनुं वर्णन के प्रतिपादन करवानी
४.
जन सा
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