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परम योगीराज आनन्दधनजी महाराज अष्टसहस्त्री पढ़ाते थे।
म० विनयसागर
पूज्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी म. ने 'आनन्दघन पदसंग्रह भावार्थ' और मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया ने 'आनन्दघनजी ना पदो भाग १--२' में श्री आनन्दघनजी महाराज के जीवन चरित्र के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है । अत: उस सम्बन्ध में कुछ भी लिखना चर्वितचर्वण या पिष्टपेषण मात्र होगा। दोनों प्रसिद्ध लेखकों ने यह तो स्वीकार किया ही है कि पूज्य आनन्दघनजी महाराज का दीक्षा नाम लाभानन्द, लाभानन्दी या लाभविजय था और मेड़ता में निवास करते थे। पिछली अवस्था का उनका नाम आनन्दघन था, किन्तु इन लेखकों ने आनन्दघनजी को वे तपागच्छ के थे इस प्रकार का प्रतिपादन किया है।
इनके मन्तव्यों का समाधान करते हुए स्वर्गीय श्री भंवरलालजी नाहटा ने आनन्दघन चौवीसी, (विवेचनकार-मुनि सहजानन्दघन, प्रकाशक- प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर और श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हम्पी सन् १९८९) की प्रस्तावना (अवधूत योगीन्द्र श्री आनन्दघन) में गहनता से विचार किया है ।
और प्रमाणपुरस्सर यह प्रतिपादित किया है कि श्री आनन्दघनजी महाराज खरतरगच्छ के थे।
इसी प्रस्तावना के पृष्ठ ३४ में उन्होंने मेरे नामोल्लेख के साथ लिखा है :
"श्री पुण्यविजयजी महाराज वहाँ से बीकानेर पधारे थे और उपाध्याय विनयसागरजी को उनके साथ अभ्यास हेतु भेजा गया था, वे उनके साथ काफी रहे थे। मुनिश्री ने वह पत्र विनयसागरजी को दे दिया था जो उन्होंने अपने संग्रह-कोटा में रखा था । अभी उनके पर्युषण पर पधारने पर वह पत्र उनके संग्रह में ज्ञात हुआ, पर अभी खोजने पर नहीं मिला तो भविष्य में खोज कर मिलने पर प्रकाश डाला जा सकेगा । पर यहाँ पर इस अवतरण पर विस्तृत प्रकाश डालने का प्रयत्न करता हूँ ।"
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