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अनुसन्धान ३२
चैतत् विशेषणं परिग्रहत्यजनेन उद्धृतक्रियत्वात्" । यह क्रियोद्धार जिनचन्द्रसूरि ने विक्रम सम्वत् १६९४ में किया था । टीकाकार जिनचन्द्रसूरि के लिए "खरतरगच्छाधीश्वर" शब्द का प्रयोग तो अवश्य करता है, किन्तु सम्राट् अकबर द्वारा प्रदत्त " युगप्रधान पद" का प्रयोग नहीं करता है, अत: इसका रचना समय १६४९ और १६४९ के मध्य का माना जा सकता है क्योंकि समयसुन्दरजी की रचना भावशतक की विक्रम सम्वत् १६४१ की प्राप्त है ।
प्रस्तुत कृति में कविवर समयसुन्दर ने टीकाकारों द्वारा सम्मत अर्थ का परिहार करके मेघदूत के प्रथम पद्य की व्याख्या में व्याकरण और अनेकार्थी कोषों की सहायता से अभिनव तीन अर्थ किये हैं जो भगवान् ऋषभदेव, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि और सूर्य को उद्देश्य कर लिखे गये हैं ।
सन् १९५४ में श्री अगरचन्दजी नाहटा ने इस कृति की पाण्डुलिपि मुझे भेजी थी । उसी को आधार मानकर संशोधित कर प्रकाशित कर रहा हूँ । इस कृति की मूल प्रति किस भण्डार में है ? यह मेरे लिए लिखना सम्भव नहीं है, सम्भव है बीकानेर के बृहद् ज्ञान भण्डार की ही हो !
विद्वद्जनों के चित्ताह्लाद के लिए चमत्कृति प्रधान यह कृति प्रस्तुत
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कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकार प्रमत्तः,
शापेनास्तंगतमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु,
स्त्रिग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ||१||
श्रीकालिदासकृतमेघदूतकाव्यप्रथमवृत्तस्य चतुरनरनिकरचित्तचमत्कारकृते निजबुद्धिवृद्धिनिमित्तञ्च मूलार्थमपहाय व्याख्या क्रियते । तत्र प्रथमं श्रीऋषभदेववर्णनमाह
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कश्चित्कान्ताविरहेत्यादि । हे ऋषभ ! हे श्रीआदिदेव ! त्वं 'अमात्वाम' इति सूत्रेण अस्मच्छब्दस्य द्वितीयैकवचने मा इति मां मल्लक्षणं स्तुतिकारकं जनं अव - रक्ष इति संटङ्कः । किंविधस्त्वं ? कः 'को ब्रह्मात्मप्रकाशार्ककेकिवा
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