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फेब्रुआरी- 2006
निद्धि - उदयगणि शिष्य चारित्रनंदी भणें । परमानंद सुख हेतु जाग्यो हिव थिरमर्णे | काव्यं ॥
लोके धर्मादिकानां निजपरविभवैर्धीविकल्पानुयोगैः सर्वज्ञास्याद्दणेशास्त्रिपदिवचनमालम्ब्य यत्र स्वरूपं ॥ आद्यन्ताब्धिप्रभित्रैर्बहुविधमगदन्पूर्वमुत्पादकं तं द्रव्याष्टाभिर्यजामि त्रिकरणमनसा ज्ञानरत्नाय भक्त्या ||१|| हौं० ॥ श्रीमदृष्टिवादान्तर्गत प्रथमोत्पादपूर्व० ॥ इति प्रथमोत्पादपूर्वं ॥२॥१२॥१॥ दोहा ॥
श्रीपूरव पूजो सदा आग्रायणी अभिहांन । निर - तिरि गतिनें रोकवा, जांणो ए अनुमान ॥१॥
ढाल ॥
सुण चंदाजी परमातम । ए चाल ॥
भवि प्राणीजी जिनभाषित पूरव बीजो धारज्यो ।
अनुभवें करिजी लक्ष नवति षट संख्या पद संभारज्यो । टेका। दृष्टिवाद अंगनी वाणी छै, अभिधानें अग्रायणी छै I विविध भाव निरमाणी छै, एतो बहुविध गुणमणि षानी है ॥
भ० ॥१॥
वस्तु चतुर्दश सूचक छे, चूलिका बार प्ररूपक छै । निज सुध सत्ता द्योतक छै, अनादि अनंत गुणभासक है |
साधूनां ज्ञानसङ्गाद्रिपुदलदलने शक्रवज्रोपमं च वस्तुव्यूहाब्धिकाष्ट(ष्टा) प्रमितविवरणं विस्तृताख्यातमत्र ।
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इण अनुभव सुखकंदी छै, निज परमारथ छंदी छै । त्रिभुवन जन ते वंदी छै, निद्धयुदय चारित्रनंदी छै ॥ भ० ॥३॥ काव्यं ॥
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