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June-2003
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त्रिभुवन भाण भुवनका दीवा, श्रीजिनशासन राया श्रीहीरविजयसूरीसर के शंकर प्रणमइ पाया बे ॥२३॥
ढा. ५ ॥ राग हुसेनी ॥
दूहा ।। गूजर थइ कागल लखि, श्रीविजयसेनसूरिंद । वेगिइं देसि पधारयो, मन-चकोरका चंद ॥१॥ लोचन तरसइ तातजी, दरसिन तेरे काजि । सूधुं नीरागुपणुं, देखाड्य मुझ आज ॥२॥ पाटण अमदावाद अरू, खंभायत धुरि मंडि ! विवध अभिग्रह आदरि, के वि वगय छ छंडि ॥३॥ दिल्लीपति प्रति वीनती, करइ प्रयाणइ रेस । अकबरजी कहि जगत्रगुरु, तुम किउं याउ विदेस ॥४॥
ढाल ॥ अयारांदपुबे (?) हम हइ रागी यु वइरागी चिलनकुं चितवइ राहा । जगत्रगुर श्रीहीरविजय प्रति कहत अकबर साहा ॥१॥ अ० ॥ तुम हम हीके घणे जीऊ परि छोर्या मइं किउं यावइ । बुजरक वार पाक दीदारा दिल मोरसुं भावइ ।।२।। अरज एक हइ अवल उलीआ मुझ धोरी पटधारी श्रीविजयसेनसूरि सब मुनिस्युं लिखत हइ वारोवारी ॥३॥ शाह करि जु मोहि दरसकुं, जु भेजु हम पासुं । कुल होइ तु रुखसद देवई, किउं करि होइ उधासुं ॥४॥ वड वजीर तबतइ श्रीवाचक शांतिचंद हइ तेरा । सो तु मेरे पासहि छोडु तु दिल मानइ मेरा ॥५॥
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