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अनुसन्धान ४२
धर्म और अधर्म के कार्य "आकाश' नही कर सकता
धर्म और अधर्म का कार्य 'आकाश' से सिद्ध नहीं हो सकता । आकाश को गति और स्थिति का नियामक मानने पर वह अनन्त और अखण्ड होने से जड तथा चेतन द्रव्यों को अपने में सर्वत्र गति और स्थिति करने से रोक नहीं सकेगा । इस तरह नियत दृश्यादृश्य विश्व के संस्थान की अनुपपत्ति बनी ही रहेगी । इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यों को आकाश से भिन्न एवं स्वतन्त्र मानना न्यायसंगत है ।१९ जीव के स्वतन्त्र सत्तारूप अस्तित्व के लिए धर्म-अधर्म की आवश्यकता
जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है । संसारी जीव तो अपने कर्मों के अनुसार लोकाकाश में अनन्त बार जन्मता
और मरता रहता हैं । सिद्ध जीव स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोकाकाश के अन्त तक जाते हैं । उनका सत्तारूप अस्तित्व वहाँ कायम रखने के लिए सिद्धशिला की परिसंकल्पना की है । ऐसे जीवों का अलोकाकाश में बेरोकटोक संचार रोकने के लिए धर्म और अधर्म के क्षेत्र के ऊर्ध्व अन्त में इन जीवों का अस्तित्व माना है ।२० धर्म शब्द का रूढ अर्थ एवं द्रव्यवाचक धर्म शब्द
आपाततः ऐसा लगता है कि सदाचार एवं धार्मिक आचरण आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनशीलता को (आध्यात्मिक प्रगति को) सहायक होता १९. तत्त्वार्थसूत्र (सुखलाल संघवी) पृ. १२४. १२५ २०. बहीया उड्नुमादाय नावकंखे कयाइ वि ।।
पुवकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे ॥ उत्तराध्ययनसूत्र ६.१३ (ऊर्ध्वं सर्वोपरिस्थितमर्थान्मोक्षम् उत्त. टीका. शान्त्याचार्य पृ. २६९ अ. २) ण कम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दछ । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो ॥ द्रव्यसंग्रह गा. ५१ ॥ आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहिं देदि जदि ।। उटुंगदिप्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ ॥पंचास्तिकाय पा. ९९॥ जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहि पण्णत्तं । तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाणा णस्थित्ति पंचास्तिकाय गा. १००।। जेसि उड्डा उ गइ ते सिद्धा दितु मे सिद्धि । सिरिसिरिवालकहा १२३०
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