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डिसेम्बर २००७
संबंध हो वह 'लोक' ।१६
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य अमूर्त हैं । इन्द्रियगम्य नहीं हैं ।१७ आगम प्रमाण द्वारा प्राप्त हैं । उपादान और निमित्त कारण
___जगत में गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ हैं । गति और स्थिति ये इन दोनों द्रव्यों के परिणाम और कार्य हैं । अर्थात् गति और स्थिति के उपादान कारण जीव और पुद्गल हैं फिर भी कार्य की उत्पत्ति में निमित्त कारण तो उपादान कारण से भिन्न ही हैं। इसीलिए जीव और पुद्गल की गति में निमित्त रूप धर्मद्रव्य और स्थिति में निमित्त रूप अधर्मद्रव्य है । इसी अभिप्राय से शास्त्र में धर्मास्तिकाय का लक्षण 'गतिशील पदार्थों की गति में निमित्त होना' और अधर्मास्तिकाय का लक्षण ‘स्थिति में निमित्त होना' कहा गया है ।१० धर्म-अधर्म असंकल्पना के बिना विश्व की स्थिति
जड और चेतन द्रव्य की गतिशीलता तो अनुभव-सिद्ध है, जो दृश्यादृश्य विश्व के विशिष्ट अंग हैं। कोई नियामक तत्त्व न रहे तो वे अपनी सहज गतिशीलता से अनन्त आकाश में कहीं भी चले जा सकते हैं । इस दृश्यादृश्य विश्व का नियत संस्थान कभी सामान्य रूप से एक-सा दिखाई नहीं देगा, क्योंकि अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त परिणाम विस्तृत आकाश क्षेत्र में बे-रोकटोक संचार के कारण वह पृथक्-पृथक् हो जायेंगे। उनका पुन: मिलना और वापिस दिखाई देना दुष्कर हो जायेगा । यही कारण है कि उस गतिशील द्रव्यों की गतिमर्यादा और स्थितिशील द्रव्यों की स्थितिमर्यादा के नियामक तत्त्व को जैन दर्शन ने स्वीकार किया है ।
१६. धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये ।
आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ।। द्रव्यसंग्रह २० १७. अज्जीवो 'पुण णेओ पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा दु ॥ द्रव्यसंग्रह १५ १८. गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । उत्तराध्ययनसूत्र २८.८
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