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॥ पत्तनस्थ जिनालय कवित्त ( ? ) ॥
अनुसन्धान- ५९
कुमारपालभूपाल दयाल जैनें जिनधर्मको मर्म जगायो, तिनकै देहरै चुमुखै च्यार मोटे जिनराय सुगुरु सुनायो, तिनकै मांहुको बिंब एह एक दोसी वीरै तस चैत्य निंपायो, भावप्रभ कहै सेवो हो भवियन सामलो पास ए पुंनै पायो. १
ढंढेर कुटंब साह वीरो जैंनें वीरवाडा नाम गाम बसाया, उत्तंग मंडप चैत्य निपाय तिहां जिन वीरका बिंब सोहाया, आठ-बीडोत्तरै पत्तन ढंढेरवाडै सोऊ बिंब आनिं बिठाया, भावप्रभ कहै पूरन भाव, श्रीमहावीर तना गुन गाया.
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कलिकुंड पास जिणंदकी मूरति, देखतै मेरी आंखि ठरै है, काल अनादि मिथ्यातर्थै पावत, पापकी पीर सो दूर टरै है, शिवचंद सारंग सार सेवार्थै, स्वामिको चैत्य उद्धारक है, भावप्रभ कहै पास महिमा जगि, रोग-सोग विषवेग हरे है. ३
पुनमगच्छ प्रभावक श्रावक सेठ वीरै सात चैत्य कराये, तिनके वंशमे दोसी तेजसी पित्तलमें सहस्सकोटी भराये, एक हजार उपरि चोवीश जिनेसर बिंब संख्या सवि थाये, भावप्रभसूरीश प्रतिष्ठित [ सत्तरचुमोत्तरि जेष्ठ सुहाये]* यात्र करत सवि पाप पलाये.
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सोनी अमीचंद चंद जसीमति आदि जिनंदको चैत्य कीनो, कुंभारीइ दुखवारीइ थानकै संवत सोल छप्पन्नै नवीनो, वैशाखी सुदि दसमी योगै, वचन सुनी ललितप्रभसूरिनो, भावप्रभ कहै धन मानव जैनैं सुमारगे धन खरचीनो. ५
* आ पंक्ति कवि पाठांतरमां रची होय तेम लागे छे.