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अनुसंधान-२६ में इनके नाम के साथ 'गणि' पद का प्रयोग मिलता है और १६६१ में रचित कृतियों में वाचनाचार्य पद का उल्लेख भी मिलता है । संघपति शिवासोमजी द्वारा शत्रुजय तीर्थ में निर्मापित चौमुखजी की ट्रॅक (सम्वत् १६७५) की प्रतिष्ठा में श्रीवल्लभ सम्मिलित थे । विजयदेवमाहात्म्य की रचना सम्वत् १६८७ के आस-पास हुई थी । अतः इनका साहित्य-सृजन काल १६५४ से १६८७ तक माना जा सकता है ।
इनकी रचनाओं को देखते हुए यह स्पष्ट है कि श्रीवल्लभ महाकवि थे, उद्भट वैयाकरणी थे, प्रौढ़ साहित्यकार थे और अनेकार्थादि-कोशों के अधिकृत विद्वान थे । इनके द्वारा निर्मित साहित्य इस प्रकार है :मौलिक ग्रन्थ : १. विजयदेवमाहात्म्य-महाकाव्य', रचना-समय अनुमानतः १६८७
अरजिनस्तव (सहस्रदलकमलगर्भितचित्रकाव्य) स्वोपज्ञटीका-सहित,
रचना-समय १६५५ से १६७० का मध्य ३. विद्वत्प्रबोध स्वोपज्ञ टीका सहित- रचना-समय संभवत. १६५५ और
१६६० के मध्य, रचनास्थान बलभद्रपुर (बालोतरा)
संघपति रूपजी-वंश-प्रशस्ति-काव्य र० सं० १६७५ के बाद ५. मातृकाश्लोकमाला, र० सं० १६५५, बीकानेर ६. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल ७. ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी', र० सं० १६५५ विक्रमनगर (बीकानेर) ८. खरतर पद नवार्थी' टीका ग्रन्थ : १. शिलोञ्छनाममाला-टीका', र० सं० १६५४, नागपुर (नागोर) २. शेषसंग्रहनाममाला दीपिका, र० सं० १६५४, बीकानेर ३. अभिधानचिन्तामणिनाममाला - 'सारोद्धार' - टीका, र० सं० १६६७,
जोधपुर
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