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अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२
इन्द्रियोनो सौ प्रथम पोतपोताना विषयभूत पुद्गलस्कन्धो साथे संयोग थाय छे.
आ संयोग साथे ज ज्ञान उत्पन्न थाय छे. पण अनी मात्रा अटली बधी अल्प होय छे के ओ ज्ञान प्रमाताने खुदने जणातुं नथी. पछी क्रमशः वधु ने वधु पुद्गलस्कन्धो साथे सम्बन्ध जोडातो जाय तेम मात्रा वधतां वधतां अन्तर्मुहूर्तकाळे, 'आ शब्द छे, आ घटपदवाच्य छे' अवा तमाम विशेषोथी रहित फक्त महासामान्यने विषय बनावनारो, 'कंइक छे' ओवो आकार ते ज्ञानमां रचाय छे. आ आकार जे समये रचायो ते समयथी प्रमाताने ज्ञाननो ख्याल आववा मांडे छे; तेथी आवी विशिष्ट व्यक्त ज्ञानमात्राने पूर्वनी असंख्य अव्यक्त ज्ञानमात्राओथी अलग पाडवा 'अर्थावग्रह'ना नामे ओळखवामां आवे छे. अने ते पहेलांनी तमाम अव्यक्त ज्ञानमात्राओ संयुक्तरूपे 'व्यञ्जनावग्रह' नामे ओळखाय छे. बन्ने स्थाने 'अवग्रह'नो अर्थ 'अत्यन्त अल्पज्ञान' थाय छे. 'व्यञ्जन' अने 'अर्थ' शब्दो, तात्पर्य आपणे आगळ समजीशुं.
चक्षु अने मनने बोध माटे पोताना विषयभूत पदार्थ साथे संयोगनी अपेक्षा नहीं होवाथी', तज्जन्य प्रत्यक्षमां सीधो ज 'कंइक छे' अवो आकार रचाय छे. माटे ओ बे स्थळे अर्थावग्रहथी ज ज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रिया आरम्भाय छे.
अर्थावग्रहमां 'कंइक छे' अवो बोध थाय अटले तरत ज 'शुं हशे? श्रोत्रग्राह्य छे माटे शब्द होवो जोईओ, घ्राणग्राह्य नथी माटे गन्ध न होई शके' आवी अन्तर्मुहूर्त सुधी चालनारी विचारणा आरम्भाय छे. दरेक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षनी उत्पत्ति-प्रक्रियामा अर्थावग्रहथी मन पण साथे जोडातुं होवाथी आ विचारणा शक्य बने छे. आ विचारणा अन्वयधर्मोना अस्तित्वनी अने व्यतिरेकधर्मोना अभावनी सिद्धि द्वारा वस्तुना निश्चय तरफ दोरी जती होवाथी 'संशय' नहीं, पण 'ईहा' कहेवाय छे.
आ विचारणाने अन्ते वाचकशब्दना उल्लेख सहित जे विशेषनो१. व्यञ्जनावग्रहना विशेष स्वरूप माटे जुओ जै.त.-परि. ६ २. चक्षु अने मनना अप्राप्यकारित्वनी सिद्धि माटे जुओ तत्त्वार्थ०-१.१९, जै.त.-परि. ७ ३. "श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारकालेऽपि मनोव्यापारस्य व्यञ्जनावग्रहोत्तरमेवाऽभ्युपगमात् ।"
-जै.त.-परि.७ ४. वस्तुमा रहेनारा धर्मो अन्वयधर्मो अने नहीं रहेनारा धर्मो व्यतिरेकधर्मो गणाय छे. ५. अपायमां केटला विशेषो प्रकार बने ? ते माटे जुओ ज्ञानबिन्दु-परि. ४६