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फेब्रुआरी २०११
२. 'कंइक छे' अवो बोध सत्ता-महासामान्यना ग्रहणरूप गणायो छे. आ बोध माटे असत्त्वनो व्यवच्छेद जरूरी नथी ? जो आ व्यवच्छेद करनारी विचारणाने ईहानो अलग दरज्जो न अपातो होय; तो 'आ शब्द छे' अवा बोध माटे जरूरी रूपादिना व्यवच्छेदने करनारी विचारणाने पण ईहानो अलग दरज्जो न अपातो होय अq न बने ?
३. आपणे अनुभवथी जोइओ तो आपणा माटे अपायथी ज व्यवहारिक व्यक्तता आववानी चालु थाय छे. कारण के 'कागडो बोले छे' ओवा बोध पहेलां चालेली विचारणा के ते पहेलां थयेटु सामान्य-ग्रहण क्यां आपणने खबर ज पडे छे ? अटले ते वखते थयेलुं 'शब्द छे' अर्बु शब्दत्वरूप सामान्यनुं ग्रहण अव्यक्त जेवू ज रहेतुं होवाथी, 'अवग्रहमां अव्यक्त सामान्यनुं ग्रहण थाय छे.१ ओवा शास्त्रीय नियम साथे तार्किक प्ररूपणामां कोई विसंवादिता
नथी.
खरेखर तो अवग्रह निराकारोपयोगरूप होय ओम कहेवामां आगमिकोने ज मुश्केली ऊभी थाय तेम छे. कारण के निराकारोपयोग अटले दर्शन ओवी सर्वत्र प्रसिद्धि छे अने अवग्रह तो मतिज्ञानरूप साकारोपयोगनो भेद छे.
४-५. सौथी प्राथमिक विशेषोनो ग्राहक अवग्रह - अर्बु नियमन पण करी शकाय छे अने द्वितीय कक्षाना विशेषोना ग्राहक अपायथी तेने ओ रीते अलग पण पाडी शकाय छे.
__ आ ओक अवग्रहना स्वरूपविषयक भिन्नता सिवाय ताकिक परम्परागत अन्य कोई भिन्नता विशे आगमिकोओ चर्चा के प्रतिवाद कर्या होवानुं जणातुं नथी ते नोंधपात्र छे. अवग्रह पूर्वे दर्शनना अस्तित्व- पण, व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रह वच्चे काळव्यवधान न होय ओ ओकमात्र शास्त्रीय नियमना आधारे निरसन करवामां आव्युं छे. आगमिक - तार्किक परम्परानो सम्भवित समन्वय
बन्ने परम्परानां निरूपणने साथे जोईओ तो -
१. "अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशाद्" - जै.त. - परि. ८