________________
फेब्रुआरी २०११
२३
नाम आपी ओ तबक्का पछी ज अवग्रहनी प्ररूपणा करी. आमां जो के वि.भाष्य जेवा महान ग्रन्थना निरूपणथी जुदुं पडवानुं थतुं हतुं; पण दर्शननी ज्ञान पूर्वे आवश्यकता, दर्शन, आन्तमॊहूर्तिकत्व, अवग्रह-ईहानी मतिज्ञानना भेद तरीके गणतरी व. घणी आगमिक प्ररूपणाओ संगत थई जती हती.१ व्यञ्जनावग्रहस्थानीय अक्षार्थयोग वखते प्रगटती अत्यल्प ज्ञानमात्राने तो तार्किको गणतरीमा ज लेतां न होवाथी, ओ ज्ञान-दर्शन उभयकोटिमांथी बहार रहे ते इष्ट गण्यु. अन्ते जे क्रम गोठवायो ते आ हतो : अक्षार्थयोग → दर्शन → अवग्रह.
३. छद्मस्थनो उपयोगमात्र असंख्य समयनो होय छे.२ तो अर्थावग्रह ओक समयनो कई रीते होय ?३ अने सामान्यना ग्रहण माटे जो अक समयने पर्याप्त मानीओ तो सामान्यना ज ग्राहक दर्शन, आन्तमॊहूर्तिकत्व शा माटे कहेवाय छे ? - बनी शके के आवी मूंझवण टाळवा तार्किकोओ अवग्रहने आन्तमॊहूर्तिक गण्यो होय. जो के दर्शन पछी अवग्रहने कल्पीओ अटले आपोआप अमां सामान्यविशेष- ग्रहण अने ते माटे जरूरी अन्तर्मुहूर्तकालमान आवी ज जाय; माटे दर्शन पछी अवग्रह कल्पवानां जे कारणो छे, ते ज अवग्रहनी भिन्न प्ररूपणानां कारणो छे..
४. 'कंइक छे' अवा बोध पछी तरत 'अहीं शंखना धर्मो छे, नगाराना नथी.' आवी विचारणा शरू न थाय; पण ते माटे अनी पहेला 'आ शुं हशे? आ हशे के आ ?' आवा संशयात्मक प्रश्नो ऊभा थवा जरूरी छे - ते समजी शकाय अq छे. आगमिक आचार्यो संशयनुं निरूपण नथी करता ते संशयना अप्रामाण्य के तेना ईहाना अन्तर्गतत्वने लीधे होई शके.
१. जो के व्यञ्जनावग्रहनो अन्त्य समय अ ज अर्थावग्रह छ – ओ ओक शास्त्रीय प्ररूपणानी
असंगति हजु ऊभी रहे छे. २. 'च्यवमानो न जानाति'ओ शास्त्रीय प्ररूपणाने "च्यवन ओक समयमां थनारी घटना छ,
अने छद्मस्थ जीव असंख्य समयमां ज बोध करी शके छे, माटे च्यवनने न जाणी शके'
ओवी रीते समजाववामां आवे छे. जे आ नियमने प्रमाणित करी आपे छे. ३. वास्तवमां 'अर्थावग्रह ओक समयनो होय' ओ वातनुं तात्पर्य शुं छे ? ते जाणवा माटे
जुओ पृ. २७