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फेब्रुआरी २०११
अपाय थाय छे. आ निश्चय अमुक काळ सुधी टकी पछी नष्ट थई जाय छे. पण नष्ट थतां पूर्वे आत्मामां स्वसमानविषयक' संस्कार मूकी जाय छे. आ संस्काररूपे ज निश्चय आत्मामां टकी रहेतो होवाथी ते धारणा कहेवाय छे. स्मृतिमां हेतुभूत आ संस्कार प्रत्यक्षप्रमाणना भेदरूप होवाथी, ज्ञानोत्पादक होवाथी अने ज्ञानमय आत्माना धर्मरूप होवाथी एने ज्ञानात्मक ज मानवो जोईओ.
आ समग्र प्रक्रियाना अलग-अलग तबक्का समजाववा पूरता ज देखाड्या छे. वास्तवमां तो क्रमशः वधती मात्रावाळु ओक ज ज्ञान होय छे. जेम के अवग्रह पोते ज ईहारूपे परिणमे छे अम समजवानुं छे, नहीं के अवग्रह ईहा जन्मावीने नाश पामी जाय छे.२ अक्षार्थयोग>दर्शन→अवग्रह→ईहा→अपाय→ धारणा - ओ ज क्रम बधे सम्भवे छे. वि.भाष्य अने प्र.मी.ना निरूपण वच्चे मुख्य भिन्नता
जैनदर्शनमां मतिज्ञानोत्पत्तिनी प्रक्रियानी बे मुख्य परम्परा जोवा मळे छे - १. आगमिक २. तार्किक. वि.भाष्य- निरूपण आगमिक परम्पराने अनुसारे छे, ज्यारे प्र.मी. आगमिक परम्परानुं परिष्कृत स्वरूप धरावती तार्किक परम्पराने अनुसरे छे. माटे ओ बे ग्रन्थ वच्चेना तफावतने आपणे बे परम्परा वच्चेना तफावत तरीके जोई शकीओ. आ भिन्नता मुख्यत्वे नीचे मुजब छे : आगमिक परम्परा
तार्किक परम्परा १. चक्षु अने मनमां सीधो अर्थावग्रह १. चक्षु अने मनमां पण अर्थावग्रह
थाय छे. अर्थावग्रह पहेलाना पहेलां विषय साथेनो सम्बन्ध व्यञ्जनावग्रहनी जरूरियात बाकीनी जरूरी छे.४
चार इन्द्रियने ज छे.३ २. व्यञ्जनावग्रह पछी सीधो अर्था- २.अक्षार्थयोग(-व्यञ्जनावग्रहस्थानीय)→ वग्रह थाय छे.५
दर्शन→अवग्रह-आवो क्रम छे.६ १. जे वस्तुनो अनुभव थाय तेनो ज संस्कार पडे छे. माटे ओ अनुभवनो समानविषयक
होय छे. २. ईहा अवग्रहजन्य के इन्द्रियजन्य ? ओवी त.वा. १.१५.१३नी चर्चा अत्रे जोवा जेवी छे. ३. वि.भाष्य - गाथा २०४
४. प्र.मी. - १.१.२६ टीका ५. वि.भाष्य - गाथा २५९ ६. “अक्षार्थयोगे सति दर्शनम् - अनुल्लिखितविशेषस्य वस्तुनः प्रतिपत्तिः, तदनन्तरम्..
अर्थग्रहणम्' - प्र.मी. - १.१.२६ टीका