________________
53
॥१५
मनशुद्ध भावना भावई बार , छंडई पातक भेद अढार , तप जप करि साधई शिव-पंथ , निरमम निरहंकार निग्रंथ. ॥११ मधुकरनी परि ल्यई आहार , दोष लिगावइ नहीय लिगार, साधुधरम सुधा प्रतिपाल , जिण वांद्या जायइ जंजाल. ॥१२ एहवा देखी नयणे साध , ते पाम्या बे हरख अगाध , चालउ ए मुनीवर वंदीयइ , सुधउ समकित लहीस्युं हीयइ. ॥१३
दूहा देखीनइ आव्या तिहां
देइ प्रदक्षिण तीन , चरण-कमल प्रणमी करी , ध्यान धरइ लयलीन. ||१४ उचित ठाम जोइ करी ,
बइठा सनमुख आवि , घरम-मारग काइ उपदिशउ , गुरजी इण प्रस्तावि.
ढाल-२
(आप सवारथ जग सहरे , एहनी) उपदेश भाखइ साधुजी ,
करउ मांसनउ परिहार , जीवां तणउ ए पिंड छइ , ए भाख्यउ रे भगवंत विचार. ॥१६ सांभलउ भवियण हित भणी रे, ए तउ विरूपउरे रसनउ अभिलाख ए सेव्यइ जीव दुख लहइ रे, एम बोलइरे गुरु सूत्रनी शाख. ॥१७
ढाल-३ (सांभलउ भवियण हित भणी रे . . . . ए आंकणी) ठाणांगसूत्र मांहे कह्या
गति नरगना हेतु च्यार जिहां अशुभ आउखउ लहइ , वेदन रे जीव विविध प्रकार.
॥१८.सां.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org