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अज्ञातकर्तृक चतुर्विंशतिजिननमस्कार - काव्यो
मध्यकालना जैन मुनिओए काव्योना अने छंदोना केटकेटला प्रकारो पर सर्जन कर्तुं छे ! जेम जेम हस्तप्रतिओ उकेलाती जाय छे, तेम तेम आ सर्जनो प्रकाशमां आवतां जाय छे. अहीं एक नानी परंतु जुदी ज भातनी संस्कृत रचना प्रस्तुत छे : चतुर्विंशतिजिननमस्कार.
- विजयशीलचन्द्रसूरि
"चोवीश तीर्थंकर" ए जैन परिभाषानो शब्दगुच्छ छे. जैन धर्म अनुसार, ऋषभदेवथी महावीर - वर्धमान स्वामी सुधीना चोवीश धर्मप्रवर्तक तीर्थंकरो थया छे; तेमनी स्तुतिनां आ काव्यो छे. २४ तीर्थंकरोनी स्तुति करतां संस्कृत काव्यो, स्तोत्रो तो असंख्य उपलब्ध छे : प्रकाशित तेम ज अप्रकाशित. पण अहीं प्रकाशित थतुं स्तोत्र तेना छंदने कारणे ध्यानपात्र बने तेवुं छे.
प्राकृत भाषाओमां ज मुख्यत्वे प्रयोजाता 'वस्तु' छंदमां (मात्रामेळ) संस्कृत पद्य भाग्ये ज रचाएलां जोवा मळे छे. जे मळे ते पण एकलदोकल ; एक सामय जथ्थामां नहीं ज. मारी जाण मुजब (भूलचुक लेवीदेवी) आ छंदमां, एकी साथै, २४ पद्यो, एक सळंग रचनारूपे मळ्यां ते विरल गणाय तेम छे.
आ स्तोत्रना कर्ता अने तेनो रचना समय प्राप्त नथी थता, परंतु छंदनी प्रयोगरीति उपरथी ते १७मा शतकनी अने कोई विद्वान् जैन मुनिनी रचना होवानुं अनुमान थाय छे.
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आ स्तोत्रनी मुख्य विशेषता, तेमां प्रयोजवामां आवेलो यमक अलंकार छे. शृंखलायमक चोवीशेय पद्योमां अखंड जोई शकाय प्रथम पद्यनो छेल्लो शब्द तेज पछीना पद्यनो प्रथम शब्द होय ते शृंखलायमक. अने वधुमां दरेक पद्यनी २३-४-५ पंक्तिओमां पण आ ज शृंखलायमक जळवायो छे : दरेक पंक्तिनो अंतिम शब्दांश ते पछीनी पंक्तिनो प्रथम अंश बने छे. आ अतिकठिन लागती योजना पण कवि एकदम अनायास - सहजतापूर्वक अने काव्यनी मधुरता तथा प्रासादिकतानी मावजत करवा साथे करी शक्या छे, ते अद्भुत लागे छे.
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