________________ 16 March-2002 कवीजनो गुण गाओ जिनकेरा, आलपंपाल म म ऊचरो, जस म म बोलो अनेरा रे / कवीजनो गुण गाओ जिन केरा, ..... आंचली० // तत्त्व त्रणे आराधीइ, श्रीदेव गुर निं धर्मो रे / समकीत सुधु राखि समझो, जईन धर्मनो मर्मो रे // 51 // क०|| देव श्रीअरीहंत छइ, जस अतीसहइ चोतीसो रे / / दोष अढार जिनथी पणि अलगा, वांणी गुण पांतीसो रे / क० // 52 // दोष अढार जे जिन कह्या, ते नही अरीआ पासइ रे / यु मृगपति दीठइ मदि मातो, मेगल ते पणि नाहासइ रे / क० // 53 / / दांन दीइ जिन अतीघj, को न करइ अंतराइ रे / लाभ घणो जिनवर तुझ जाणुं, बहु प्रतिबोध्या जाइ रे / क० // 54 // अंतराय जिननि नही, वीर्याचार वसेको रे / तप जप तुं संयम जिन पाल[त], आलस नही जस रेखो रे / क०||५५॥ भोग घणो भगवंतनि, अनि वली अवभोगाइ रे / सूर नर कीनर गुण तुझ गाइ, वंदइ प्रभुना पाइ रे / क०॥५६॥ हाशविनोद क्रीडा नही, रती अर्ती नही नामो रे / भय दूगंछा जिन नवी राखइ, शोक अनि नही कामो रे / क० // 57 // मीथ्या मुख्य नवी बोलवू, जिननि नही अज्ञानो रे / नीद्रा नही नीसचइ सहु जाणो, अवर्तीनिं नही मानो रे / क० // 58|| राग द्वेष जिन जीपीआ, लीधो सीवपूरवासो रे / / ते जिनवर पूजंतां पेखो, पोहइचइ मननी आसो रे / क० / / 59 / / दहा० // आशा पोहोचइ [मनत]णी, जपता जिनवर नाम / अतीसहइ चोतीस जिनतणा, ते बोलु गुणग्राम // 6 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org