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March-2004
जोरावरसिंह थे ।
ये किस जाति और किस वंश के थे, इसका कोई संकेत इस पत्र में नहीं है । किन्तु यह स्पष्ट है कि महोपाध्याय रूपचन्द्र के साथ इनका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । राजनीति के अतिरिक्त आनन्दराम प्रौढ़ विद्वान् था, अन्यथा संस्कृत, प्राकृत, सौरसेनी, मागधी और पैशाची आदि छः भाषाओं में इनको पत्र नहीं लिखा जाता ।
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डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने बीकानेर राज्य का इतिहास प्रथम खण्ड में आनन्दराम के सम्बन्ध में जो भी उल्लेख किए है, वे निम्न हैं :महाराज अनूपसिंह के आश्रय में ही उसके कार्यकर्ता नाजर आनन्दराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गीता का गद्य और पद्य दोनों में अनुवाद किया था । (पृष्ठ २८४ )
नाजर आनन्दराम महाराजा अनूपसिंह का मुसाहिब था । उसके पीछे व महाराजा स्वरूपसिंह तथा महाराज सुजानसिंह के सेवा में रहा, जिसके समय में विक्रम सम्वत् १७८९ चैत्र वदी ८ (१७३३ तारीख २६ फरवरी) को वह मारा गया । (पृष्ठ २८५)
जब काफीले वालों ने महाराजा सुजानसिंह के दरबार में आकर शिकायत की तो प्रधान नाजर आनन्दराम आदि की सलाह से महाराजा ने अपनी सेना के साथ प्रयाण कर वरसलपुर को जा घेरा । (पृष्ठ २९७)
कुछ ही दिनों बाद नवीन बादशाह (मोहम्मदशाह) ने सुजानसिंह को बुलाने के लिए अहदी (दूत) भेजे, परन्तु साम्राज्य की दशा दिन-दिन गिरती जा रही थी, ऐसी परिस्थिति में उसने स्वयं शाही सेवा में जाना उचित नहीं समझा । फिर भी दिल्ली के बादशाह से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए उसने खवास आनन्दराम और मूधड़ा जसरूप को कुछ सेना के साथ दिल्ली तथा मेहता पृथ्वीसिंह को अजमेर की चौकी पर भेज दिया । ( २९८, २९९ ) सुजानसिंह के एक मुसाहब खवास आनन्दराम तथा जोरावरसिंह में वैमनस्य होने के कारण वह ( जोरावरसिंह) उसको मरवाकर उसके स्थान में अपने प्रीतिपात्र फतहसिंह के पुत्र बख्तावरसिंह को रखवाना चाहता था ।
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