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अनुसन्धान-४१
गीतार्थ साधु ज आपी शके तेवो सरस-स्पष्ट खुलासो तेमणे आप्यो छे, अने ते द्वारा 'जैन मुनि मांसाहार न करे; नहोता करता' ते मुद्दो तेमणे सुग्रथित रीते साबित कर्यो छे. अत्यन्त रोगातङ्कादि कारणे अभक्ष्य पुद्गल पदार्थनो बाह्य उपयोग करवानुं ते सूत्रपाठ सूचवे छे, तेनुं पण तेमणे विशद प्रतिपादन कर्यु छे.
एक वात समजवायोग्य छे. सूत्रना शब्दो द्विअर्थी छे. तेनो प्राथमिक अर्थ मांसपरक थतो होवा छतां संस्कृतज्ञ आचार्यो वगेरेए तेना निघण्टु (वनौषधि) शास्त्राधारित वनौषधिपरक अर्थ करवानु वलण सुदृढपणे अपनाव्यु छे, जे आजे पण प्रवर्ते छे. पं. गम्भीरविजयजी समक्ष, टीकाकार महर्षिओ आदिना प्रतिपादन-आधारित, ते सूत्रगत ते ते शब्दोना ते ते प्राथमिक अर्थो ज स्वीकारवानी परम्परा पण छे. ते परम्परा प्रमाणे, विलक्षण संजोगोमां बाह्यपरिभोगरूपे मांस आदिनो उपयोग करवानुं अपवादपदे मान्य होवा छतां, आहाररूपे तेनो उपयोग-उपभोग निषिद्ध अने अमान्य ज होवा, तेमणे सिद्ध कर्यु छे. अने आ परम्पराना परिप्रेक्ष्यमां ज, निघण्टुशास्त्रादिनी मददथी ते ते शब्दोना वनस्पतिपरक अर्थ करीने, बाह्य के अभ्यन्तर कोई पण स्वरूपे मांसपरिभोगनो जैन ग्रन्थोमां निषेध होवानु ज सिद्ध करनार आचार्योने, (दा.त. पाशचन्द्रसूरि) तेमणे, असत्यभाषी तरीके वर्णव्या जणाय छे. सापेक्षभावे आ वात लईए तो परस्पर विरोधनो परिहार थई शके छे. तत्त्व तो हमेशां बहुश्रुतगम्य ज होवा. परन्तु एक विशिष्ट दृष्टिकोण आ द्वारा आपणने सांपडे छे, ए नक्की.
आ लेखनु लेखनवर्ष जोके कर्ताए नोंध्यु नथी, छतां ते वि.सं. १९५३-५४ आसपास लखायो होय ते अनुमान थाय छे. आ लेखनी कर्ताए स्वहस्ते लखेली जणाती हस्तप्रति भावनगर तपा. संघना हस्तलिखित ज्ञान भण्डारमा उपलब्ध छे. पांच पत्रनी ते प्रतिनी झेरोक्स नकल परथी आ लेख अत्रे आपेल छे. आ प्रति ते भण्डारमा 'जेकोबीनो पत्र' एवा नामे नोंधायेल छे. तेनो पोथी नं. ४०३ छे, प्रत नं. १३४८.
बीजी पत्रात्मक रचना छे परीहार्यमीमांसा. वि.सं. १९५४मां, मुंबई समाचार वर्तमानपत्रमा डॉ. जेकोबी तथा मेक्समूलर नामना विद्वानोनो पत्र
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