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षट्पद सकल-सुयण-गुण-वट्टि-पत्त बहु-नेहहँ पूरिय दुह-दूरिय-रिउ-वग्ग-मग्ग-तम-भर-संचूरिय । भासुर-तेय-सुदित्त जित्त जिणि रवि-ससि-मंडल पयड-पयाव-पयंड सुहवि किरि लहु आखंडल अच्छरिय एह जसु देह नवि, पाव-पंक-कज्जलु किरइ जसु कित्ति झत्ति निय-कुल-भवणि कुल-पईव जिम विष्फुरइ ॥८
साटक भत्ती देव-गुरुम्मि जम्मपभिई पीई परा पाणिणो, . सम्माणं मय-णाण-ताणममलं अत्ताण सत्ताण य । सच्चं सीलमणिदियं सुविउलं भिच्चेसु वच्छल्लयं, एवं तस्स गुणोदओ-वि लहुणो कप्पूर-गंधस्स वा ॥९
शार्दूलविक्रीडितं द्वितीय नाम ।।
गाथा
एवं भूरि गुणस्स वि, तस्सासी वसणमुत्तमं दाणे । कस्स मणो कत्थ वि पुण, रई कुणइ जह सुयं लोए ॥१०
दहा कुणही-नई काँई रुचइँ, कुणही-नई काइँ सुहाइ । भमरु कमलिणि रइ करइ, दगुरु कद्दमि जाइ ॥११॥ इत्यादि ।
गाथा जो जस्स जाणइ गुणा० ॥१२ जि बहुफलेहि फलीउ० ॥१३ हंसा रच्चंति सरे० ॥१४ जिणि नवि पुज्जिउ तित्थयरु, पत्ति न दिद्धउँ दाणु । तिणि करि करि सिउँ बप्पडउ, करिस्यइ नरु अहिमाणु ॥१५ धम्मि राग सुअ-चितवण, दाण-वसण जसु होइ । माणुस-भव-सुरतरु-तणउँ, ए निश्चल फल होइ ॥१६
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