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अनुसन्धान- ४० कोई उल्लेख नहीं है । तथापि आगम साहित्य, प्रकीर्णक साहित्य, तीर्थंकर चरित्र (प्रथमानुयोग), आदि विभिन्न ग्रन्थों में जो स्थानकों सम्बन्धि उल्लेख मिलते हैं उनका यहाँ एकीकरण किया गया हो ऐसा माना जा सकता है ।
श्रीशीलाङ्काचार्य (९वीं शती) रचित चउपन्न - महापुरुष - चरियं में शासनदेव, शासनदेवी, पारणा कराने वाले और प्रमुख भक्त आदि का उल्लेख न होने से यह निश्चित है कि यह उससे परवर्ती रचना है ।
श्रीशीलाङ्काचार्य रचित चउप्पन्न - महापुरुष - चरियं और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र में वर्णित स्थानकों में अन्तर हो सकता है । जैसे श्री शीलाङ्काचार्य, देवभद्रसूरि और हेमचन्द्राचार्य ने श्रेयांसनाथ का अन्तरकाल ६६, २६००० सागरोपम कम माना है, किन्तु त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र संस्कृत में ६६, २६००० ही माना है किन्तु सम्पादक श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी ने पाठान्तर में ६६, ३६००० स्वीकृत किया है । गुजराती और हिन्दी अनुवादों में ६६, ३६००० ही देखने में आ रहा है ।
श्रीजिनवल्लभसूरि ने चतुर्विंशति जिन स्तोत्राणि में केवल छः स्थानकों का ही उल्लेख किया है । परवर्ती काल में स्थानकों का वर्णन क्रमश: बढ़ते हुए १७० तक पहुँच चुका था । श्रीसोमतिलकसूरि द्वारा संवत् १३८७ में रचित सप्ततिशत्तस्थानप्रकरणम् में १७० स्थानों का वर्णन है ।
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मुनिराज की पुण्यविजयजी के संग्रह की वर्तमान समय में प्राप्त प्रति में अजितनाथ स्तोत्र से यह वर्णन प्रारम्भ होता है । जबकि आज से ५५ वर्ष पूर्व जिस प्रति के आधार से प्रतिलिपि की थी उसमें ऋषभदेव वर्णनात्मक ८ गाथाएँ भी थी । यह कृति अद्यावधि अप्रकाशित थी । अतः पाठकगण इसका रसास्वादन करें, इसी दृष्टि से प्रस्तुत है I
सिरि रिसहणाह - थुत्तं
परिसिद्धिकए सिरिरिसहनाह ! सव्वट्टसिद्धिमुज्झेउं । अवइन्नोसि अउज्झं कसिणं चउत्थीइ आसाढे ॥ | १ || नाहि-मरुदेवि-तणओ जाओ चित्तट्ठमीइ बहुलाए । पंच धणुस्यदेहो कणयपहो तंसि वसहंको ॥२॥
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